महफ़िल-ए-ग़ज़ल #८९ “सना-ख़्वाने-तक़दीसे-मशरिक़ कहां हैं?” – मुमकिन है कि आपने यह पंक्ति पढी या सुनी ना हो, लेकिन इस पंक्ति के इर्द-गिर्द जो नज़्म बुनी...
महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७४ इक्कीस बरस गुज़रे आज़ादी-ए-कामिल को,तब जाके कहीं हम को ग़ालिब का ख़्याल आया ।तुर्बत है कहाँ उसकी, मसकन था कहाँ उसका,अब अपने सुख़न...