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ये बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है जो चाहो लगा दो…. महफ़िल में पहली मर्तबा "नुसरत" और "फ़ैज़" एक साथ

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #४६

पिछली कड़ी में जहाँ सारे जवाब परफ़ेक्ट होते-होते रह गए थे(शरद जी अपने दूसरे जवाब के साथ कड़ी संख्या जोड़ना भूल गए थे), वहीं इस बार हमें इस बात की खुशी है कि पहली मर्तबा किसी ने कोई गलती नहीं की है। खुशी इस बात की भी है कि जहाँ हमारे बस दो नियमित पहेली बूझक हुआ करते थे(सीमा जी और शरद जी), वहीं इसी फ़ेहरिश्त में अब शामिख जी भी शामिल हो गए हैं। उम्मीद करते हैं कि धीरे-धीरे और भी लोग हमारी इस मुहिम में भाग लेने के लिए आगे आएँगे। अभी भी ५ कड़ियाँ बाकी हैं, इसलिए कभी भी सारे रूझान बदल सकते हैं। इसलिए सभी प्रतिभागियों से आग्रह है कि वे जोर लगा दें और जो अभी भी किसी शर्मो-हया के कारण खुद को छुपाए हुए हैं,वे पर्दा हटा के सामने आ जाएँ। चलिए अब पिछली कड़ी के अंकों का हिसाब करते हैं। इस बार का गणित बड़ा हीं आसान है: सीमा जी: ४ अंक, शरद जी: २ अंक, शामिख जी: १ अंक। और हाँ, शरद जी आपकी यह बहानेबाजी नहीं चलेगी। महफ़िल-ए-गज़ल में आपको आना हीं होगा और जवाब भी देना होगा। चलिए, अब बारी है आज के प्रश्नों की| तो ये रहे प्रतियोगिता के नियम और उसके आगे दो प्रश्न: ५० वें अंक तक हम हर बार आपसे दो सवाल पूछेंगे जिसके जवाब उस दिन के या फिर पिछली कड़ियों के आलेख में छुपे होंगे। अगर आपने पिछली कड़ियों को सही से पढा होगा तो आपको जवाब ढूँढने में मुश्किल नहीं होगी, नहीं तो आपको थोड़ी मेहनत करनी होगी। और हाँ, हर बार पहला सही जवाब देने वाले को ४ अंक, उसके बाद २ अंक और उसके बाद हर किसी को १ अंक मिलेंगे। इन १० कड़ियों में जो भी सबसे ज्यादा अंक हासिल करेगा, वह महफ़िल-ए-गज़ल में अपनी पसंद की ५ गज़लों की फरमाईश कर सकता है, वहीं दूसरे स्थान पर आने वाला पाठक अपनी पसंद की ३ गज़लों को सुनने का हक़दार होगा। इस तरह चुनी गई आठ गज़लों को हम ५३वीं से ६०वीं कड़ी के बीच पेश करेंगे। और साथ हीं एक बात और- जवाब देने वाले को यह भी बताना होगा कि “अमुक” सवाल किस कड़ी से जुड़ा है। तो ये रहे आज के सवाल: –

१) “महाराष्ट्र प्राईड अवार्ड” से सम्मानित एक फ़नकार जिन्होंने अपने शुरूआती दिनों में “गमन” फ़िल्म का एक गीत गाकर प्रसिद्धि पाई। उस फ़नकार का नाम बताएँ और यह भी बताएँ कि वह कौन-सा गीत है जिसकी हम बातें कर रहे हैं।
२) आज से करीब २३ साल पहले चिट्ठी लेकर आने वाला एक फ़नकार जिसके बड़े भाई ने फिल्म “अभिमान” में लता मंगेशकर के साथ एक दोगाना गया था। उस फ़नकार के नाम के साथ अभिमान फ़िल्म का वह गाना भी बताएँ।

यूँ तो महफ़िल में किसी एक बड़े फ़नकार का आना हीं हमारे लिए बड़े फ़ख्र की बात होती है, इसलिए जब भी “नुसरत फतेह अली खान” साहब या फिर “फ़ैज़ अहमद फ़ैज़” साहब की हमारी महफ़िल में आमद हुई है, हमने उस दिन को किसी जश्न की तरह जिया है, लेकिन उसे क्या कहिएगा जब एक साथ ये दो बड़े फ़नकार आपकी महफ़िल में आने को राज़ी हो जाएँ। कुछ ऐसा हीं आज यहाँ होने जा रहा है। आज हम आपको जो गज़ल सुनवाने जा रहे हैं उसे अपने बेहतरीन हर्फ़ों से सजाया है “फ़ैज़” ने तो अपनी रूहानी और रूमानी आवाज़ से सराबोर किया है “बाबा नुसरत” ने। हम बता नहीं सकते कि इस गज़ल को पेश करते हुए हमें कैसा अनुभव हो रहा है। लग रहा है मानो एक दिन के लिए हीं सही लेकिन जन्नत ने आज अपने दरवाजे हम सब के लिए खोल दिए हैं। चलिए तो फिर, आज की महफ़िल की विधिवत शुरूआत करते हैं और बात करते हैं सबसे पहले “नुसरत फतेह अली खान” की। बहुत ढूँढने पर हमें जनाब राहत फतेह अली खान का एक इंटरव्यु हाथ लगा है। हमारे लिए यह फ़ख्र की बात है कि “राहत” साहब से यह बातचीत हिन्द-युग्म की हीं एक वाहिका “रचना श्रीवास्तव” ने की थी। तो पेश हैं उस इंटरव्यु के कुछ अंश: मैं नुसरत फ़तेह अली खान साहब का भतीजा हूँ और मेरे वालिद फार्रुख फतेह अली खान साहेब को भी संगीत का शौक था बस समझ लीजिये की इसी कारण पूरे घर में ही संगीत का माहौल था। ७ साल की उमर में मैने अपना पहला कार्यक्रम किया था। खाँ साहेब ने मुझे सुना और बहुत तारीफ़ की। उनका कोई बेटा नही था तो उन्होंने मुझे गोद ले लिया था। मैं आज जो कुछ भी हूँ उन्ही की बदौलत हूँ, संगीत के रूह तक पहुँचना उन्हीं से सीखा है। १९८५ में वो मुझे बहर भी ले कर गए। जब भी कभी मै गाता था उनकी तरफ़ ही देख कर गाता था। सभी कहते थे सामने देख कर गाओ, पर मै यदि उनको न देखूँ तो गा ही नहीं सकता था। वो स्टेज पे गाते गाते हीं मुझे बहुत कुछ सिखा देते थे। आप सब तो राजीव शुक्ला को जानते हीं होंगे। जनाब कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य हैं। उनके पास भी नुसरत साहब की कुछ यादें जमा हैं। वे कहते हैं: मैं एक बार लाहौर में प्रसिद्ध गायक नुसरत फतेह अली खान का इंटरव्यू करने गया था, शायद वह उनका आखिरी टेलीविजन इंटरव्यू था। नुसरत ने तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से पुरजोर मांग की थी कि पाकिस्तान के दरवाजे भारतीय कलाकारों के लिए खोल दिए जाने चाहिए। नुसरत शायद पहले ऐसे पाकिस्तानी कलाकार थे जिन्होंने ईमानदारी से यह बात कही थी, वरना नूरजहां से लेकर आबिदा परवीन तक किसी को भी मैंने यह कहते नहीं सुना कि भारतीय कलाकारों को पाकिस्तान में आमंत्रित किया जाना चाहिए। तो इस कदर खुले दिल के थे हमारे “बाबा नुसरत”। बस गम यही है कि ऐसा साफ़-दिल का इंसान अब हमारे बीच नहीं है..लेकिन उनकी आवाज़ तो हमेशा हीं रवां रहेगी।

“बाबा” के बाद अब समय है शायरी की दुनिया के बेताज़ बादशाह “फ़ैज़ अहमद फ़ैज़” की यादें जवां करने की। फ़ैज़ के बारे में अपनी पुस्तक “पाकिस्तान की शायरी” में “श्रीकान्त” कहते हैं: किसी देश की पहचान यदि किसी साहित्यकार के नाते की जाए तो इससे बढ़कर मसिजीवी का सम्मान और क्या हो सकता है ! फ़ैज़ ऐसे ही शायर हुए, जिनकी वजह से लोग पाकिस्तान को जानते थे। वे जेल के बन्द सीख़चों से भी सारी दुनिया के दमित, दलित, शोषित लोगों को जगाते रहे। उर्दू शायरी में प्रगतिवाद की चर्चा बिना फ़ैज़ के अपूर्ण मानी जाती है। फ़ैज़ नज़्मों और ग़ज़लों दोनों के शायर हैं। उनकी रचनाओं में जज़्बाती ज़िंदगी फैली हुई है। फ़ैज़ की शायरी में वर्तमान की व्यथा, विडम्बनाएँ तथा उससे मुक्ति की छटपटाहट स्पष्ट-अस्पष्ट दृष्टव्य हैं। फ़ैज़ के सम्पूर्ण का निर्माता भले न हो, वर्तमान को यथोचित दिशा देने का यत्न अवश्य करता है, ताकि आगामी पल स्वस्थ तथा सुन्दर हो। फ़ैज़ ने शिल्प तथा विषयगत क्रान्तिकारी परिवर्तन किए, जिसका प्रभाव आज तक कुछ उर्दू कवियों में देखा जा सकता है। फ़ैज़ की शायरी में विचार और कला का अनूठा सामंजस्य मिलता है। किसी का परिचय देते समय कोई इससे ज्यादा क्या कहेगा! फ़ैज़ के बारे में किसी लेखक का यह कहना किसी भी लिहाज़ से गलत नहीं है(सौजन्य: भारतीय साहित्य संग्रह): उर्दू शाइरी में फ़ैज़ को ग़ालिब और इक़बाल को पाये का शाइर माना गया है, लेकिन उनकी प्रतिबद्ध प्रगतिशील जीवन-दृष्टि सम्पूर्ण उर्दू शाइरी में उन्हें एक नई बुलन्दी सौंप जाती है। फूलों की रंगो-बू से सराबोर शाइरी से अगर आँच भी आ रही हो तो मान लेना चाहिए कि फ़ैज़ वहाँ पूरी तरह मौजूद हैं। यही उनकी शाइरी की ख़ास पहचान है, यानी रोमानी तेवर में खालिस इन्क़लाबी बात। उनकी तमाम रचनाओं में जैसे एक अर्थपूर्ण उदासी, दर्द और कराह छुपी हुई है, इसके बावजूद वह हमें अद्भुत् रूप से अपनी पस्तहिम्मती के खिलाफ़ खड़ा करने में समर्थ है। कारण, रचनात्मकता के साथ चलने वाले उनके जीवन-संघर्ष। उन्हीं में उनकी शाइरी का जन्म हुआ और उन्हीं के चलते वह पली-बढ़ी। वे उसे लहू की आग में तपाकर अवाम के दिलो-दिमाग़ तक ले गए और कुछ इस अन्दाज़ में कि वह दुनिया के तमाम मजलूमों की आवाज़ बन गई। समय-समय पर हम इसी तरह फ़ैज़ के बारे में बाकी लेखकों और शायरों के विचार आपसे बाँटते रहेंगे। अभी आगे बढते हैं गज़ल की ओर। उससे पहले “फ़ैज़” का लिखा एक बड़ा हीं खुबसूरत शेर पेश-ए-खिदमत है:

तुम आये हो न शब-ए-इन्तज़ार गुज़री है,
तलाश में है सहर बार बार गुज़री है।

वैसे जानकारी के लिए बता दें कि इस गज़ल को “मुज़फ़्फ़र अली” की फ़िल्म “अंजुमन” में भी शामिल किया गया था, जिसमें आवाज़ें थीं संगीतकार खैय्याम और जगजीत कौर की। वह फ़िल्म अपने-आप में हीं अजूबी थी, क्योंकि उसके एक और गाने को शबाना आज़मी ने गाया था। खैर छोड़िये उन बातों को, अभी हम नुसरत साहब की आवाज़ में इस गज़ल का लुत्फ़ उठाते हैं:

कब याद में तेरा साथ नहीं,कब हाथ में तेरा हाथ नहीं,
सद शुक्र के अपनी रातों में अब हिज्र की कोई रात नहीं।

मुश्किल हैं अगर हालात वहाँ दिल बेच आयेँ जाँ दे आयेँ,
दिल वालो कूचा-ए-जानाँ में क्या ऐसे भी हालात नहीं।

जिस धज से कोई मक़्तल में गया वो शान सलामत रहती है,
ये जान तो आनी जानी है इस जाँ की तो कोई बात नहीं।

मैदान-ए-वफ़ा दरबार नहीं, याँ नाम-ओ-नसब की पूछ कहाँ,
आशिक़ तो किसी का नाम नहीं कुछ इश्क़ किसी की ज़ात नहीं।

ये बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है जो चाहो लगा दो डर कैसा,
गर जीत गए तो क्या कहना हारे भी तो बाज़ी मात नहीं।

चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली –

न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सही,
___ और भी बाकी हो तो ये भी न सही

आपके विकल्प हैं –
a) आजमाईश, b) इम्तहां, c) तन्हाई, d) बेकरारी

इरशाद ….

पिछली महफिल के साथी –

पिछली महफिल का सही शब्द था “तन्हाई” और शेर कुछ यूं था –

मैं बहुत जल्दी ही घर लौट के आ जाऊँगा,
मेरी तन्हाई यहाँ कुछ दिनों पहरा दे दे…

राहत इंदौरी के इस शेर को सबसे पहली सही पहचाना “सीमा” जी ने। सीमा जी ने वह गज़ल भी पेश की जिससे यह शेर लिया गया है। उस गज़ल का मतला और मक़ता दोनों हीं बड़े हीं शानदार हैं। आप भी देखिए:

शहर में ढूँढ रहा हूँ के सहारा दे दे
कोई हातिम जो मेरे हाथ में कासा दे दे

तुमको राहत की तबीयत का नहीं अंदाज़ा
वो भिखारी है मगर माँगो तो दुनिया दे दे।

इस गज़ल के बाद सीमा जी ने कुछ शेर महफ़िल के सुपूर्द किए। ये रही बानगी:

जब भी तन्हाई से घबरा के सिमट जाते हैं
हम तेरी याद के दामन से लिपट जाते हैं (सुदर्शन फ़ाकिर)

तन्हाई की ये कौन सी मन्ज़िल है रफ़ीक़ो
ता-हद्द-ए-नज़र एक बयाबान सा क्यूँ है (शहरयार)

कावे-कावे सख़्तजानी हाय तन्हाई न पूछ
सुबह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का (मनु जी के बड़े अंकल यानि कि मिर्ज़ा ग़ालिब)

निर्मला जी, आपको हमारी पेशकश पसंद आई, इसके लिए आपका तहे-दिल से शुक्रिया। आगे भी हमारा यही प्रयास रहेगा कि गज़लों का यह स्तर बना रहे।

शरद जी, मंजु जी और शन्नो जी ने अपने-अपने स्वरचित शेर पेश किए। शन्नो जी, हौसला-आफ़जाई के लिए आपका किन लफ़्ज़ों में शुक्रिया अदा करूँ। आप तीनों इसी तरह महफ़िल में आते रहें और शेर सुनाते रहें, यही दुआ है। ये रहे आपके पेश किए हुए शेर(क्रम से):

मेरी तन्हाई मेरे पास न आती है कभी,
जब भी आती है तेरी याद भी आ जाती है।

मेरी तन्हाई के गरजते -बरसते बादल हो ,
यादों के आंसुओं से समुन्द्र बन जाते हो।

तन्हाई के आलम में तन्हाई मुझे भाती
कुछ ऐसे लम्हों में हो जाती हूँ जज्बाती।

अंत में अपने लाजवाब शेरों के साथ महफ़िल में नज़र आए शामिख जी। कुछ शेर जो आपकी पोटली से निकलकर हमारी ओर आए:

शब की तन्हाई में अब तो अक्सर
गुफ़्तगू तुझ से रहा करती है (परवीन शाकिर)

कुछ न किसी से बोलेंगे
तन्हाई में रो लेंगे (अहमद फ़राज़)

अंगड़ाई पर अंगड़ाई लेती है रात जुदाई की
तुम क्या समझो तुम क्या जानो बात मेरी तन्हाई की (क़तील शिफ़ाई)

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए विदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति – विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. “महफ़िल-ए-ग़ज़ल” श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक “तन्हा”. साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -“शान-ए-महफिल”. हम उम्मीद करते हैं कि “महफ़िल-ए-ग़ज़ल” का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

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