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दिल मगर कम किसी से मिलता है… बड़े हीं पेंचो-खम हैं इश्क़ की राहो में, यही बता रहे हैं जिगर आबिदा

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #८८

“को“कोई अच्छा इनसान ही अच्छा शायर हो सकता है।” ’जिगर’ मुरादाबादी का यह कथन किसी दूसरे शायर पर लागू हो या न हो, स्वयं उन पर बिलकुल ठीक बैठता है। यों ऊपरी नज़र डालने पर इस कथन में मतभेद की गुंजाइश कम ही नज़र आती है लेकिन इसको क्या किया जाए कि स्वयं ‘जिगर’ के बारे में कुछ समालोचकों का मत यह है कि जब वह अच्छे इनसान नहीं थे, तब बहुत अच्छे शायर थे।

’जिगर’ के बारे में खुद कुछ कहूँ (इंसान खुद कुछ कहने की हालत में तभी आता है, जब उसने उस शख्सियत पर गहरा शोध कर लिया हो और मैं यह मानता हूँ कि मैने जिगर साहब की बस कुछ गज़लें पढी हैं, उनपर आधारित अली सरदार ज़ाफ़री का “कहकशां” देखा है और उनके बारे में कुछ बड़े लेखकों के आलेख पढे हैं…. इससे ज्यादा कुछ नहीं किया…… इसलिए मुझे नहीं लगता कि मैं इस काबिल हूँ कि अपनी लेखनी से दो शब्द या दो बोल निकाल सकूँ) इससे बेहतर मैंने यही समझा कि हर बार की तरह “प्रकाश पंडित” जी की पुस्तक का सहारा लिया जाए। तो अभी ऊपर मैंने ’जिगर’ की जो हल्की-सी झांकी दिखाई, वो “प्रकाश पंडित” जी की मेहरबानी से हीं संभव हो पाई थी। मेरे हिसाब से जिगर उन शायरों में आते हैं, जिन्हें अपनी हैसियत का एक शतांश भी न मिला। इनका लिखा यह शेर

ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना तो समझ लीजे,
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है।

अभी भी ग़ालिब के नाम से पढा और सराहा जाता है (जी हाँ ,हमने भी यह गलती की थी….. “कमीने” फिल्म के “फ़टाक” गाने पर चर्चा के दौरान हमने यही कहा था कि गुलज़ार की यह पंक्ति “ये इश्क़ नहीं आसाँ..अजी एड्स का खतरा है” ग़ालिब के शेर से प्रेरित है)। भला कितनों को यह मालूम है कि “चोरी-चोरी चुपके-चुपके” फिल्म के शीर्षक गीत की शुरूआती पंक्तियाँ सीधे-सीधे इस शेर से उठाई हुई हैं:

रग-रग में इस तरह वो समा कर चले गये
जैसे मुझ ही को मुझसे चुराकर चले गये

भले हीं हमें “जिगर” की जानकारी न हो, लेकिन इनके शेर हर तबके के लोगों की जुबान पर चढे हुए हैं। है कोई ऐसा जो यह दावा करे कि कभी न कभी, कही न कहीं उसने इस शेर को सुना या फिर कहा नहीं है:

हमको मिटा सके, यह ज़माने में दम नहीं,
हमसे ज़माना ख़ुद है, ज़माने से हम नहीं।

फिल्मों के नाम तक इनके शेरों ने मुहैया कराए हैं। इस शेर को पढकर खुद अंदाजा लगाईये कि हम किस फिल्म की बात कर रहे हैं:

फूल खिले हैं गुलशन गुलशन
लेकिन अपना अपना दामन

‘जिगर’ ने भले हीं हिन्दी फिल्मों में न लिखा हो, लेकिन उन्होंने हिन्दी फिल्मों को वह हीरा दिया, जिसे संगीत-जगत कभी भी भूल नहीं सकता। “मजरूह सुल्तानपुरी” की मानें तो “जिगर” ने हीं उन्हें फिल्मों के लिए लिखने की सलाह दी थी। दर-असल जिगर मजरूह के गुरू थे।

जिगर को याद करते हुए उर्दू के जानेमाने शायर निदा फ़ाज़ली कहते हैं:

जिगर अपने युग में सबसे ज़्यादा मशहूर और लोकप्रिय रहे हैं। वह जिस मुशायरे में शरीक होते, उनके सामने किसी और का चिराग नहीं जलता, वह भारत, और पाकिस्तान दोनों जगह पूजे जाते थे। लेकिन इस शोहरत ने न उनके तौर तरीके बदले न उनके ख़ानदानी मूल्यों में कोई परिवर्तन किया। पाकिस्तान ने उन्हें दौलत की बड़ी-बड़ी लालचें देकर हिंदुस्तान छोड़ने को कहा, लेकिन उन्होंने शाह अब्दुलग़नी (जिनके वह मुरीद थे) और असग़र के मज़ारों के देश को त्यागने से इनकार कर दिया।

जिगर की शायरी की दुनिया, और इसके ज़मीन-आसमान उनके अपने थे। इसमें न गालिब की दार्शनिक सूझबूझ हैं, न नजीर जैसा इन्सानी फैलाव है। लेकिन इसके बावजूद वह ग़ज़ल की तारीख में अपने अंदाजेबयान की नग़मगी और हुस्नोइश्क़ के सांस्कृतिक रिश्ते की वजह से हमेशा याद किये जाते रहेंगे। वह दाग़ की तरह बाज़ारे हुस्न के सैलानी होते हुए भी, रिश्तों की बाजारियत से कोसों दूर हैं। उन्होंने अपनी विरासती तहजीब से ग़ज़ल के बाज़ारी किरदारों में सामाजिकता का जादू जगाया है। वस्लों-फ़िराक़ के परंपरागत बयानों को अपने अनुभवों की रोशनी से सजाया है। उनके अनुभवों ने शब्दों को लयात्मक बनाया है।

जिगर ऐसे थे, जिगर वैसे थे, जिगर ने ये लिखा, जिगर ने वो लिखा… ये सब बातें तो होती रहेंगी, लेकिन जो इंसान यह कह गया

क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क ने जाना है,
हम ख़ाकनशीनों की ठोकर में ज़माना है।

वह असल में था कौन.. उसकी निजी ज़िंदगी क्या थी… आईये अब हम यह भी जान लेते हैं (साभार: प्रकाश पंडित):

अली सिकन्दर ‘जिगर’ मुरादाबादी १८९० ई. में मौलवी अली ‘नज़र’ के यहां, जो स्वयं एक अच्छे शायर और ख़्वाजा वज़ीर देहलवी के शिष्य थे, पैदा हुए। एक पूर्वज मौलवी ‘समीअ़’ दिल्ली के निवासी और बादशाह शाहजहान के उस्ताद थे। लेकिन शाही प्रकोप के कारण दिल्ली छोड़कर मुरादाबाद में जा बसे थे। यों ‘जिगर’ को शायरी उत्तराधिकार के रूप में मिली। तेरह-चौदह वर्ष की आयु में ही उन्होंने शे’र कहने शुरू कर दिए। शुरू-शुरू में अपने पिता से संशोधन लेते उसके बाद उस्ताद ‘दाग़’ देहलवी को अपनी ग़ज़लें दिखाईं और ‘दाग’ के बाद मुंशी अमीर-उल्ला ‘तसलीम’ और ‘रसा’ रामपुरी को ग़ज़लें दिखाते रहे। शायरी में सूफ़ियाना रंग ‘असग़र’ गौंडवी की संगत का फल था। शिक्षा बहुत साधारण। अंग्रेज़ी बस नाम-मात्र जानते थे। आजीविका जुटाने के लिए कभी स्टेशन-स्टेशन चश्मे भी बेचा करते थे। और शक्ल-सूरत के लिहाज़ से तो अच्छे-खासे बदसूरत व्यक्ति गिने जाते थे। लेकिन ये सब ख़ामियां अच्छे शे’र कहने की क्षमता तले दब कर रह गई थीं।

‘जिगर’ साहब की शादी उर्दू के प्रसिद्ध कवि स्वर्गीय ‘असग़र’ गौंडवी की छोटी साली से हुई थी लेकिन ‘जिगर’ साहब की शराबनोशी ने बना घर बिगाड़ दिया और ‘असग़र’ साहब ने ‘जिगर’ साहब से तलाक़ दिलाकर उनकी पत्नी को अपनी पत्नी बना लिया। ‘असग़र’ साहब के देहांत पर ‘जिगर’ साहब ने फिर उसी महिला से दोबारा शादी कर ली और कुछ मित्रों का कहना है कि उनकी इस पत्नी ने ही उनकी शराब की लत छुड़ावाई। यह उनके अच्छे आदमी बनने की धुन थी , पत्नी का जोर था या फिर न जाने क्या था कि एक दिन उन्होंने हमेशा के लिए शराब से तौबा कर ली और फिर मरते दम तक शराब को हाथ नहीं लगाया। शराब से तौबा के बाद वह बेतहाशा सिगरेट पीने लगे, लेकिन कुछ समय के बाद उन्होंने सिगरेट भी छोड़ दी।

‘जिगर’ साहब बड़े हंसमुख और विशाल हृदय के व्यक्ति थे। धर्म पर उनका गहरा विश्वास था लेकिन धर्मनिष्ठा ने उनमें उद्दंडता और घमंड नहीं, विनय और नम्रता उत्पन्न की। वह हर उस सिद्धांत का सम्मान करने को तैयार रहते थे जिसमें सच्चाई और शुद्धता हो। यही कारण है कि साहित्य के प्रगतिशील आन्दोलन का भरसक विरोध करने पर भी उन्होंने ‘मजाज़’, ‘जज़्बी’, मसऊद अख़्तर ‘जमाल’, मजरूह सुलतानपुरी इत्यादि बहुत से प्रगतिशील शायरों को प्रोत्साहन दिया और ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के निमंत्रण पर अपनी जेब से किराया ख़र्च करके वह उनके सम्मेलनों में योग देते रहे। (यों ‘जिगर’ साहब किसी मुशायरे में आने के लिए हज़ार-बारह सौ रुपये से कम मुआवज़ा नहीं लेते थे।)

‘जिगर’ साहब का पहला दीवान (कविता-संग्रह) ‘दाग़े-जिगर’ १९२१ ई. में प्रकाशित हुआ था। उसके बाद १९२३ ई. में ‘शोला-ए-तूर’ के नाम से एक संकलन मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ से छपा। एक नया कविता-संग्रह ‘आतिशे-गुल’ के नाम से सन् १९५८ में प्रकाशित हुआ था। इस पुस्तक को साहित्य अकादमी ने उर्दू भाषा की सन् १९५९ की सर्वश्रेष्ठ कृति मानकर उस पर पाँच हज़ार रुपये का पुस्कार देकर ‘जिगर’ साहब को सम्मानित किया। ९ सितम्बर, १९६० को उर्दू ग़ज़ल के इस शती के बादशाह ‘जिगर’ का गोंडा में स्वर्गवास हो गया।

बातों-बातों में हम गज़ल सुनवाना तो भूल हीं गए। अरे-अरे उदास मत होईये… ऐसा कैसे हो सकता है कि महफ़िल सजे और कोई गज़ल साज़ पर चढे हीं नहीं। आज की गज़ल वैसे भी कुछ खास है… क्योंकि “जिगर” की इस गज़ल को अपनी आवाज़ से मुकम्मल किया है अनोखी अदाओं की धनी बेगम आबिदा परवीन ने। हमने यह गज़ल उनकी एलबम “खज़ाना” से ली है। तो लीजिए.. लुत्फ़ उठाईये आज की पेशकश का:

आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है

भूल जाता हूँ मैं ____ उस के
वो कुछ इस सादगी से मिलता है

आज क्या बात है के फूलों का
रंग तेरी हँसी से मिलता है

रूह को भी मज़ा मोहब्बत का
दिल की हमसायगी से मिलता है

मिल के भी जो कभी नहीं मिलता
टूट कर दिल उसी से मिलता है

कार-ओ-बार-ए-जहाँ सँवरते हैं
होश जब बेख़ुदी से मिलता है

चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की… ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ….

पिछली महफिल के साथी –

पिछली महफिल का सही शब्द था “सियाह” और शेर कुछ यूँ था-

कहें न तुमसे तो फ़िर और किससे जाके कहें
सियाह ज़ुल्फ़ के सायों बड़ी उदास है रात

पिछली महफ़िल की शोभा बनीं सीमा जी। आपके अलावा महफ़िल में नीरज जी (नीरज रोहिल्ला), शन्नो जी, मंजु जी, सुमित जी, नीलम जी, अवनींद्र जी और शरद जी भी शामिल हुए। माहौल बड़ा हीं खुशगवार था। शन्नो जी, अवनींद्र जी और नीलम जी की शरारतें जोरों पर थीं। नीलम जी जहाँ शेर को बकरी करार देने पर (जो कि हमने कतई नहीं किया था, हमने तो बस गलती बताई थी ताकि अगली बार उनमें सुधार हो सके 🙂 ) थोड़ी नाराज़ दिखीं तो वहीं शन्नो जी डूबते माहौल को उबारने में लगी थीं। अवनींद्र जी गज़ल के रंग से सराबोर नज़र आए, वहीं शरद जी बड़े दिनों बाद महफ़िल में शेर पढते दिखे। नीरज जी का बहुत दिनों बाद (या शायद पहली बार) महफ़िल में आना हुआ, हम उनका स्वागत करते हैं। महफ़िल में सभी मित्रों (रसिकों) ने सियाह शब्द पर कई सारे शेर पढे (कुछ अपने तो कुछ जानेमाने शायरों के… हम दोनों को बराबर का दर्जा देते हैं) ..

जिसे नसीब हो रोज़-ए-सियाह मेरा सा
वो शख़्स दिन न कहे रात को तो क्यों कर हो ( ग़ालिब )

फ़र्द-ए-अमल सियाह किये जा रहा हूँ मैं
रहमत को बेपनाह किये जा रहा हूँ मैं (जिगर मुरादाबादी )

स्याह को सफ़ेद और सफ़ेद को स्याह करते हैं
यहाँ दिन को रात कहने से लोग नहीं डरते हैं (शन्नो जी)

जलने वालों के दिल जल के सियाह हुए
जलाने वाले जलाकर अपनी राह हुए (शन्नो जी) बढिया है!

सियाह रातों में मिलन की ऋतु आई ,
हर दिशा में फूलों ने भी खुशबु है लुटाई . (मंजु जी)

स्याह अँधेरे दिल में थे
और बेवफा महफ़िल में थे (नीलम जी ) वाह-वाह! इशारा किधर है? 🙂

ये चाँद भी स्याह हो जाये
सारे तारे भी तबाह हो जायें
तेरे होठों पे ठहरी ख़ामोशी
गर खुले तो शराब हो जाये (अवनींद्र जी)

ग़र रात है सियाह तो उसकी है ये फ़ितरत
पर दिन का उजाला भी अंधेरा तेरे बगैर। (शरद जी) क्या बात है!!

मैने चाँद और सितारो की तमन्ना की थी,
मुझको रातो की सियाही के सिवा कछ ना मिला

हमने इस बार से अपनी टिप्पणियों का तरीका बदल दिया है। हमें लगता है कि सारे रसिकों, सारे पाठकों से एक साथ की गई बात ज्यादा असरकारी होती है। आप क्या कहते है? अपने विचारों से हमें अवगत जरूर कराईयेगा।

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति – विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. “महफ़िल-ए-ग़ज़ल” श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक “तन्हा”. साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -“शान-ए-महफिल”. हम उम्मीद करते हैं कि “महफ़िल-ए-ग़ज़ल” का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

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