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उस पे बन जाये कुछ ऐसी कि बिन आये न बने.. जसविंदर सिंह की जोरदार आवाज़ में ग़ालिब ने माँगी ये दुआ

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७९

पिछली किसी कड़ी में इस बात का ज़िक्र आया था कि “ग़ालिब” के उस्ताद “ग़ालिब” हीं थे। उस वक्त तो हमने इस बात पे ध्यान नहीं दिया, लेकिन जब आज का आलेख लिखने की बारी आई तो हमने सोचा कि क्यों न एक नया मुद्दा,एक नया विषय ढूँढा जाए, अंतर्जाल पर ग़ालिब से जु़ड़ी सारी कहानियों को हमने खंगाल डाला और फिर ढूँढते-ढूँढते बात चचा ग़ालिब के उस्ताद पे आके अटक गई। श्री रामनाथ सुमन की पुस्तक “ग़ालिब” में इस सुखनपरवर के उस्ताद का लेखा-जोखा कुछ इस तरह दर्ज़ है:

फ़ारसी की प्रारम्भिक शिक्षा इन्होंने आगराके उस समय के प्रतिष्ठित विद्वान मौलवी मुहम्मद मोवज्ज़म से प्राप्त की। इनकी ग्रहण शक्ति इतनी तीव्र थी कि बहुत जल्द वह ज़हूरी जैसे फ़ारसी कवियों का अध्ययन अपने आप करने लगे बल्कि फ़ारसी में गज़लें भी लिखने लगे। इसी ज़माने (१८१०-१८११ ई.) में मुल्ला अब्दुस्समद ईरान से घूमते-फिरते आगरा आये और इन्हींके यहाँ दो साल तक रहे। यह ईरान के एक प्रतिष्ठत एवं वैभवसम्पन्न व्यक्ति थे और यज़्द के रहनेवाले थे। पहिले ज़रथुस्त्र के अनुयायी थे पर बाद में इस्लाम को स्वीकार कर लिया था। इनका पुराना नाम हरमुज़्द था। फ़ारसी तो उनकी घुट्टीमें थी। अरबी का भी उन्हें बहुत अच्छा ज्ञान था। इस समय मिर्ज़ा १४ के थे और फ़ारसी में उन्होंने अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली थी। अब मुल्ला अब्दुस्समद जो आये तो उनसे दो वर्ष तक मिर्ज़ा ने फ़ारसी भाषा एवं काव्य की बारीकियों का ज्ञान प्राप्त किया और उनमें ऐसे पारंगत हो गये जैसे ख़ुद ईरानी हों। अब्दुस्समद इनकी प्रतिभा से चकित थे और उन्होंने अपनी सारी विद्या इनमें उँडेल दी। वह इनको बहुत चाहते थे। जब वह स्वदेश लौट गये तब भी दोनों का पत्र-व्यवहार जारी रहा। एकबार गुरु ने शिष्य को एक पत्र में लिखा—”ऐ अजीज़ ! चः कसी? कि बाई हमऽ आज़ादेहा गाह गाह बख़ातिर मी गुज़री।” इससे स्पष्ट है कि मुल्लासमद अपने शिष्य को बहुत प्यार करते थे।

काज़ी अब्दुल वदूद तथा एक-दो और विद्वानों ने अब्दुस्समद को एक कल्पित व्यक्ति बताया है। कहा जाता है कि मिर्जा से स्वयं भी एकाध बार सुना गया कि “अब्दुस्समद एक फर्ज़ी नाम है। चूँकि मुझे लोग बे उस्ताद कहते थे, उनका मुँह बन्द करनेको मैंने एक फ़र्जी उस्ताद गढ़ लिया है।” पर इस तरह की बातें केवल अनुमान और कल्पना पर आधारित हैं। अपने शिक्षण के सम्बन्ध में स्वयं मिर्ज़ा ने एक पत्र में लिखा है—

“मैंने अय्यामे दबिस्तां नशीनीमें ‘शरह मातए-आमिल’ तक पढ़ा। बाद इसके लहवो लईव और आगे बढ़कर फिस्क़ व फ़िजूर, ऐशो इशरतमें मुनमाहिक हो गया। फ़ारसी जबान से लगाव और शेरो-सख़ुन का जौक़ फ़ितरी व तबई था। नागाह एक शख़्स कि सासाने पञ्चुम की नस्ल में से….मन्तक़ व फ़िलसफ़ा में मौलवी फ़ज़ल हक़ मरहूम का नज़ीर मोमिने-मूहिद व सूफ़ी-साफ़ी था, मेरे शहर में वारिद हुआ और लताएफ़ फ़ारसी…और ग़वामज़े-फ़ारसी आमेख़्ता व अरबी इससे मेरे हाली हुए। सोना कसौटी पर चढ़ गया। जेहन माउज़ न था। ज़बाने दरी से पैवन्दे अज़ली और उस्ताद बेमुबालग़ा…था। हक़ीक़त इस ज़बान की दिलनशीन व ख़ातिरनिशान हो गयी।” यानि कि

“पाठशाला में पढने के दिनों में मैने “शरह मातए-आमिल” तक पढा। आगे चलकर खेल-कूद और ऐशो-आराम में मैं तल्लीन हो गया। फ़ारसी जबान से लगाव और शेरो-कविताओं में रूचि मेरी स्वाभाविक थी। तभी ये हुआ कि सासाने-पंचुम की नस्ल में से तर्कशास्त्र और दर्शन में पारंगत एक इंसान जो कि मौलवी फ़ज़ल हक़ मरहूम जैसा हीं धर्मात्मा और संत था, मेरे शहर में दाखिल हुआ (यहाँ पर ग़ालिब का इशारा मुल्ला अब्दुस्समद की ओर हीं है) और उसी से मैने फ़ारसी और अरबी की बारीकियाँ जानीं। धीरे-धीरे फ़ारसी मेरे ज़हन में घर करती गई और एक दिन यूँ हुआ कि यह ज़बान मेरी दिलनशीन हो गई।”

हमने ग़ालिब के उस्ताद के बारे में तो जान लिया (भले हीं लोग कहें कि ग़ालिब का कोई उस्ताद नहीं था, लेकिन हरेक शख्स किसी न किसी को गुरू मानता जरूर है, फिर वह गुरू प्रत्यक्ष हो या परोक्ष, सीधे तौर पे जुड़ा हो या फिर किसी और माध्यम से, लेकिन गुरू की आवश्यकता तो हर किसी को होती है.. ऐसे में ग़ालिब अपवाद हों, यह तो हो हीं नहीं सकता था), अब क्यों न लगे हाथों हम ग़ालिब की शायरी में छुपी जटिलताओं का भी ज़िक्र कर लें। (साभार: अनिल कान्त .. मिर्ज़ा ग़ालिब ब्लाग से)

ग़ालिब अपनी शायरी में बातों को घुमा-फिराकर उनमें जद्दत पैदा करने की कोशिश करते हैं। ग़ालिब के पूर्वार्द्ध जीवन का काव्य तो हिन्दी कवि केशव की भाँति (जिन्हें ‘कठिन काव्य का प्रेत’ कहा गया है) जान बूझकर दुर्बोध बनाया हुआ काव्य है। ज़नाब ‘असर’ लखनवी ने ग़ालिब का ही एक शेर उद्धत करके इस विषय पर प्रकाश डाला है :

लेता न अगर दिल तुम्हें देता कोई दम चैन,
करता जो न मरता कोई दिन आहोफ़ुँगा और ।

जब किसी ने इसका मतलब पूछा तो ग़ालिब ने कहा :

“यह बहुत लतीफ़ तक़रीर है। लेता को रब्त चैन से, करता मरबूत है में आहोफ़ुँगा से। अरबी में ता’कीद लफ्ज़ी व मान’वी दोनों मा’यूब हैं । फ़ारसी में ता’की़दे मान’वी ऐब और ता’की़दे लफ्ज़ी जायज़ बल्कि फ़सीह व मलीह। रेख्त: तक़लीद है फ़ारसी की। हासिल मा’नी मिस्त्र-ऐन यह कि अगर दिल तुम्हें न देता तो कोई दम चैन लेता, न मरता तो कोई दिन आहो फ़ुँगा करता।”

यानि कि “यह बहुत हीं सुंदर प्रयोग है। यहाँ लेता का संबंध चैन से है और करता का आहोफ़ुँगा से। अरबी में लफ़्ज़ों को इधर-उधर करना जिसमें अर्थ या तो वही रहे या फिर बदल जाए मान्य है, लेकिन फ़ारसी में लफ़्ज़ों के उस हेरफ़ेर को ऐब माना जाता है जिसमें अर्थ हीं बदल जाए, हाँ इतना है कि जब तक अर्थ वही रहे हम शब्दों को आराम से इधर-उधर कर सकते हैं और इससे शायरी में सुन्दरता भी आती है। चूँकि उर्दू की पैदाईश फ़ारसी से हुई है, इसलिए हम इसमें फ़ारसी का व्याकरण इस्तेमाल कर सकते हैं।”

वैसे यह कलाबाज़ी ग़ालिब का अंदाज़ है । वर्ना शेर को इस रूप में लिखा गया होता तो सबकी समझ में बात आ जाती :

देता न अगर दिल तुम्हें लेता कोई दम चैन,
मरता न तो करता कोई दिन आहोफ़ुँगा और।

इसी घुमाव के कारण उनके जमाने के बहुत से लोग उनका मज़ाक उड़ाया करते थे. किसी ने कहा भी :

अगर अपना कहा तुम आप ही समझे तो क्या समझे,
मज़ा कहने का जब है एक कहे और दूसरा समझे।
कलामे मीर समझें और ज़बाने मीरज़ा समझें,
मगर इनका कहा यह आप समझें या खुदा समझें।

मिर्ज़ा शायरी में माहिर थे, लेकिन शायरी के अलावा भी उनके कुछ शौक थे। कहा जाता है कि मिर्ज़ा को शराब और जुए का नशे की हद तक शौक था। जुआ खेलने के कारण वे कई बार हुक्मरानों के हत्थे चढते-चढते बचे थे। ऐसी हीं एक घटना का वर्णन प्रकाश पंडित ने अपनी पुस्तक “ग़ालिब और उनकी शायरी” में किया है:

मई १८४७ ई. में मिर्ज़ा पर एक और आफ़त टूटी। उन्हें अपने ज़माने के अमीरों की तरह बचपन से चौसर, शतरंज आदि खेलने का चसका था। उन दिनों में भी वे अपना ख़ाली समय चौसर खेलने में व्यतीत करते थे और मनोरंजनार्थ कुछ बाजी बदलकर खेलते थे। चांदनी चौक के कुछ जौहरियों को भी जुए की लत थी, अतएव वे मिर्ज़ा ही के मकान पर आ जाते थे। एक दिन जब मकान में जुआ हो रहा था, शहर कोतवाल ने मिर्ज़ा को रंगे-हाथों पकड़ लिया। शाही दरबार (बहादुरशाह ज़फ़र) और दिल्ली के रईसों की सिफ़ारिशें गईं। लेकिन सब व्यर्थ। उन्हें सपरिश्रम छः महीने का कारावास और दो सौ रुपये जुर्माना हो गया। बाद में असल जुर्माने के अतिरिक्त पचास रुपये और देने से परिश्रम माफ़ हो गया और डॉक्टर रास, सिविल सर्जन दिल्ली की सिफ़ारिश पर वे तीन महीने बाद ही छोड़ दिए गए। लेकिन ‘ग़ालिब’ जैसे स्वाभिमानी व्यक्ति के लिए यह दण्ड मृत्यु के समान था। एक स्थान पर लिखते हैं:

“मैं हरएक काम खुदा की तरफ़ से समझता हूँ और खुदा से लड़ नहीं सकता। जो कुछ गुज़रा, उसके नंग(लज्जा) से आज़ाद, और जो कुछ गुज़रने वाला है उस पर राज़ी हूँ। मगर आरजू करना आईने-अबूदियत(उपासना के नियम) के खिलाफ़ नहीं है। मेरी यह आरजू है कि अब दुनिया में न रहूँ और अगर रहूँ तो हिन्दोस्तान में न रहूँ।” यह दुर्घटना व्यक्तिगत रूप से उनके स्वाभिमान की पराजय का संदेश लाई, अतएव

बंदगी में भी वो आज़ाद-ओ-खुदबी हैं कि हम,
उल्टे फिर आयें दरे-काबा अगर वा न हुआ।।

कहने वाले शायर ने विपत्तियों और आर्थिक परेशानियों से घबराकर अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ‘ज़फ़र’ का दरवाज़ा खटखटाया। बहादुरशाह ज़फ़र ने तैमूर ख़ानदान का इतिहास फ़ारसी भाषा में लिखने का काम मिर्ज़ा के सुपुर्द कर दिया और पचास रुपये मासिक वेतन के अतिरिक्त ‘नज्मुद्दौला दबीरुलमुल्क निज़ाम-जंग’ की उपाधि और दोशाला आदि ख़िलअ़त प्रदान की और यों मिर्ज़ा बाक़ायदा तौर पर क़िले के नौकर हो गए।

इन बातों से यह भी मालूम पड़ता है कि खस्ताहाल आर्थिक स्थिति और शराब/जुए की लत के कारण मिर्ज़ा को कैसे-कैसे दिन देखने पड़े। सुखन के आसमान का चमकता हीरा किन्हीं गलियों में पत्थर के मोल बिकने को मजबूर हो गया। अब इससे ज्यादा क्या कहें.. अच्छा यही होगा कि हम मिर्ज़ा के जाती मामलों पे ध्यान दिए बगैर उनके सुखन को सराहते रहें। जैसे कि मिर्ज़ा के ये दो शेर:

आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ-सा कहें जिसे

“गा़लिब” बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे

मिर्ज़ा से जुड़े तीन-तीन किस्सों को हमने आज की इस महफ़िल में समेटा। इतना कुछ कहने के बाद “एक गज़ल सुन लेना” तो बनता है भाई!! क्या कहते हैं आप? है ना? तो चलिए आपकी आज्ञा लेकर हम आज की इस गज़ल से पर्दा उठाते हैं जिसे अपनी आवाज़ से सजाया है जनाब जसविंदर सिंह जी ने। जसविंदर सिंह कौन है, यह बात क्यों न हम उन्हीं के मुँह से सुन लें:- “मैं मुंबई का रहने वाला हूँ और संगीत से जुड़ी फैमिली से संबंध रखता हूं। मेरे गुरु मेरे पिता कुलदीप सिंह हैं, जिन्होंने गज़ल ‘ये तेरा घर ये मेरा घर’ और गीत ‘इतनी शक्ति हमें देना दाता’ को कंपोज किया। अगर मैं गज़ल गायक नहीं होता तो निस्संदेह एक शास्त्रीय गायक होता। अभी तक मेरे तीन एलबम बाज़ार में आ चुके हैं- योर्स ट्रूली, दिलकश और इश्क नहीं आसान।” मेरे हिसाब से जसविंदर जी की यह गज़ल “इश्क़ नहीं आसान” एलबम का हीं एक हिस्सा है। वैसे जो रिकार्डिंग हमारे पास है वो किसी लाईव शो की है..इसलिए दर्शकों की तालियों का मज़ा भी इसमें घुल गया है। यकीन नहीं होता तो खुद सुन लीजिए:

नुक्ताचीं है, ग़म-ए-दिल उस को सुनाये न बने
क्या बने बात, जहाँ बात बनाये न बने

मैं बुलाता तो हूँ उस को, मगर ऐ जज़्बा-ए-दिल
उस पे बन जाये कुछ ऐसी, कि बिन आये न बने

मौत की राह न देखूँ, कि बिन आये न रहे
तुम को चाहूँ कि न आओ, तो बुलाये न बने

इश्क़ पर ज़ोर नहीं, है ये वो _____ “ग़ालिब”
कि लगाये न लगे और बुझाये न बने

चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की… ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ….

पिछली महफिल के साथी –

पिछली महफिल का सही शब्द था “नदीम” और शेर कुछ यूँ था-

तुमसे तो कुछ कलाम नहीं, लेकिन ऐ नदीम
मेरा सलाम कहियो, अगर नामाबर मिले

मालूम होता है कि दूसरे शब्दों की तुलना में यह शब्द थोड़ा मुश्किल था, इसलिए हर बार की तुलना में इस बार हमें कम हीं शेर देखने और सुनने को मिलें। आगे बढने से पहले मैं यह बताता चलूँ कि यहाँ “नदीम” किसी शायर का नाम नहीं ,बल्कि इस शब्द का इस्तेमाल इसके अर्थ(नदीम = जिगरी दोस्त) में हुआ है..

अमूमन ऐसा कम हीं होता है कि शरद जी सीमा जी के पहले महफ़िल में आ जाएँ, लेकिन इस बार की स्थिति कुछ और हीं थी। वैसे यह होना हीं था क्योंकि शरद जी तो अपने वक्त पे हीं थे (आलेख पोस्ट होने के ४ घंटे बाद वो महफ़िल में आए थे), लेकिन सीमा जी हीं कहीं पीछे रह गईं। शरद जी ने अपने स्वरचित शेर से महफ़िल को तरोताज़ा कर दिया। यह रहा आपका शेर:

खंज़र को भी नदीम समझ कर के एक दिन
हाथों से थाम कर उसे दिल से लगा लिया । (स्वरचित)

महफ़िल में अगली हाज़िरी लगाई सीमा जी ने। सीमा जी, हम यहाँ एक हीं शेर पेश कर सकते हैं क्योंकि दूसरा शेर “नदीम” साहब का है। हमें उन शेरों की दरकार थी जिसमें नदीम का कुछ अर्थ निकले। खैर..

ये जो चार दिन के नदीम हैं इन्हे क्या ’फ़राज़’ कोई कहे
वो मोहब्बतें, वो शिकायतें, मुझे जिससे थी, वो कोई और है. (अहमद फ़राज़)

कविता जी, महफ़िल में आपका स्वागत है… प्रस्तुति पसंद करने के लिए आपका तह-ए-दिल से आभार। तो लगे हाथों आप भी कोई शेर पेश कर दीजिए ताकि महफ़िल की रवायतें बनी रहें..

अवनींद्र जी, बातों-बातों में आपने कई शेर पेश किए… आपके तीनों शेरों में से मुझे यह शेर बड़ा हीं मज़ेदार लगा,इसलिए इसी को यहाँ डाल रहा हूँ:

कभी तो आओगे मेरी कब्र पे फातिहा पढने ऐ नदीम
कफ़न बिछा के तुम्हे शायरी सुना देंगे ,पका देंगे रुला देंगे

शन्नो जी, इन पंक्तियों में आपने क्या कहने की कोशिश की है, मुझे इसका हल्का-सा अंदाजा हुआ है, लेकिन पूरी तरफ़ से समझ नहीं पाया हूँ… वैसे आपकी यह “कलाकारी” और “अदाकारी” कहाँ से प्रेरित है, मुझे यह पता है 🙂

यहाँ कोई नदीम नहीं किसी का, ये दुनियां तो है बस अदाकारी की
कोई मरता या जीता है बला से, सबको पड़ी है बस कलाकारी की. (स्वरचित)

मंजु जी, इस बार आपके शेर में बहुत सुधार है…. पढ कर मज़ा आ गया:

गले लगाकर नदीम का रिश्ता आपने जो दिया ,
पूरा शहर इस रस्म का दीवाना हो गया . (स्वरचित)

नीलम जी, अब लगता है कि मुझे भी आपको ठाकुर (ठकुराईन) मानना होगा। अब तक तो मैं बस महफ़िल हीं सजाया करता था, लेकिन अब से मुझे आपके शेरों को पूरा करने का काम भी मिल भी गया है। यह रही मेरी कोशिश:

नदीम नहीं न सही, रकीब ही सही ,
बंदगी नहीं न सही, सलीब ही सही।

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति – विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. “महफ़िल-ए-ग़ज़ल” श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक “तन्हा”. साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -“शान-ए-महफिल”. हम उम्मीद करते हैं कि “महफ़िल-ए-ग़ज़ल” का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

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