Uncategorized

गुल हुई जाती है अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम……. महफ़िल-ए-नौखेज़ और "फ़ैज़"

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३१

ज की महफ़िल बड़ी हीं खुश-किस्मत है। आज हमारी इस महफ़िल में एक ऐसे शम्म-ए-चरागां तशरीफ़फ़रमां हैं कि उनकी आवभगत के लिए अपनी जबानी कुछ कहना उनकी शान में गुस्ताखी के बराबर होगा। इसलिए हमने यह निर्णय लिया है कि इनके बारे में या तो इन्हीं का कहा कुछ पेश करेंगे या फिर इनके जानने वालों का कहा। इनकी शायरी के बारे में उर्दू के एक बुजुर्ग शायर “असर” लखनवी फ़रमाते हैं: “इनकी शायरी तरक़्की के मदारिज (दर्जे) तय करके अब इस नुक्ता-ए-उरूज (शिखर-बिन्दु) पर पहुंच गई है, जिस तक शायद ही किसी दूसरे तरक्क़ी-पसंद (प्रगतिशील) शायर की रसाई हुई हो। तख़य्युल (कल्पना) ने सनाअत (शिल्प) के जौहर दिखाए हैं और मासूम जज़्बात को हसीन पैकर (आकार) बख़्शा है। ऐसा मालूम होता है कि परियों का एक ग़ौल (झुण्ड) एक तिलिस्मी फ़ज़ा (जादुई वातावरण) में इस तरह मस्ते-परवाज़ (उड़ने में मस्त) है कि एक पर एक की छूत पड़ रही है और क़ौसे-कुज़ह (इन्द्रधनुष) के अक़्कास (प्रतिरूपक) बादलों से सबरंगी बारिश हो रही है।” पंजाब के सियालकोट में जन्मे इस बेमिसाल शायर को “उर्दू” अदब और “उर्दू” शायरी का बेताज बादशाह माना जाता है। “अंजुमन तरक्की पसंद मुस्सनफ़िन-ए-हिंद” के आजीवन सदस्य रहने वाले इन शायर को सोवियत युनियन ने १९६३ में “लेनिन पीस प्राइज” से नवाज़ा था। इतना हीं नहीं “शांति के नोबल पुरस्कार” के लिए भी इन्हें दो बार नामांकित किया गया था। उर्दू के आलोचक मुम्ताज हुसैन के अनुसार इनकी शायरी में अगर एक परंपरा क़ैश(मजनूं) की है तो एक मन्सूर की। जानकारी के लिए बता दूँ कि मन्सूर एक प्रसिद्ध ईरानी वली थे जिनका विश्वास था कि आत्मा और परमात्मा एक ही है और उन्होंने “अनल-हक” (सोऽहं-मैं ही परमात्मा हूं) की आवाज़ उठाई थी। उस समय के मुसलमानों को उनका यह नारा अधार्मिक लगा और उन्होंने उन्हें फांसी दे दी। ये शायर जिनकी हम आज बात कर रहे हैं, वो मार्क्सवादी थे, इसलिए उनमें भी यह भावना कूट-कूट कर भरी थी।

फ़ैज़ अहमद “फ़ैज़” आज के उर्दू शायरों में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय हैं। जी हाँ, हम “फ़ैज़” की हीं बात कर रहे हैं, जिन्होंने कभी कहा था कि “हम परवरिशे-लौहो-क़लम करते रहेंगे,जो दिल पे गुज़रती है रक़म करते रहेंगे” यानि कि हम तख्ती और कलम का प्रयोग करते रहेंगे और जो भी दिल पर गुजरती है उसे लिखते रहेंगे। “फ़ैज़” का मानना था कि जब तक दिल गवाही दे, तब तक हीं लिखें, मजबूरन लिखना या फिर बेमतलब कलम को तकलीफ़ देना बड़ी बुरी बात है। अपनी पुस्तक “नक्शे-फ़रियादी” की भूमिका में ये कहते हैं: “आज से कुछ बरस पहले एक मुअय्यन जज़्बे (निश्चित भावना) के ज़ेरे-असर अशआर (शे’र) ख़ुद-ब-ख़ुद वारिद (आगत) होते थे, लेकिन अब मज़ामीन (विषय) के लिए तजस्सुस (तलाश) करना पड़ता है…हममें से बेहतर की शायरी किसी दाखली या खारिजी मुहर्रक (आंतरिक या बाह्य प्रेरक) की दस्ते-निगर (आभारी) होती है और अगर उन मुहर्रिकात की शिद्दत (तीव्रता) में कमी आ जाए या उनके इज़हार (अभिव्यक्ति) के लिए कोई सहल रास्ता पेशेनज़र न हो तो या तो तजुर्बात को मस्ख़ (विकृत) करना पड़ता है या तरीके-इज़हार को। ऐसी सूरते-हालात पैदा होने से पहले ही ज़ौक और मसलहत का तक़ाज़ा यही है कि शायर को जो कुछ कहना हो कह ले, अहले-महफ़िल का शुक्रिया अदा करे और इज़ाज़त चाहे।” उर्दू के सुप्रसिद्ध संपादक “प्रकाश पंडित” ने “फ़ैज़” पर एक पुस्तक लिखी थी “फ़ैज़ और उनकी शायरी”। उसमें उन्होंने “फ़ैज़” से जुड़ी कई सारी मज़ेदार बातों का ज़िक्र किया है। “फ़ैज़” की शायरी के बारे में ये लिखते हैं: फ़ैज़ अहमद “फ़ैज़” आधुनिक काल के उन चंद बड़े शायरों में से हैं जिन्होंने काव्य-कला में नए प्रयोग तो किए लेकिन उनकी बुनियाद पुराने प्रयोगों पर रखी और इस आधार-भूत तथ्य को कभी नहीं भुलाया कि हर नई चीज़ पुरानी कोख से जन्म लेती है। यही कारण है कि इनकी शायरी का अध्ययन करते समय हमें किसी प्रकार की अजनबियत महसूस नहीं होती। इनकी शायरी की “अद्वितीयता” आधारित है इनकी शैली के लोच और मंदगति पर, कोमल, मृदुल और सौ-सौ जादू जगाने वाले शब्दों के चयन पर, “तरसी हुई नाकाम निगाहें” और “आवाज़ में सोई हुई शीरीनियां” ऐसी अलंकृत परिभाषाओं और रुपकों पर, और इन समस्त विशेषताओं के साथ गूढ़ से गूढ़ बात कहने के सलीके पर।

“फ़ैज़” साहब दिल के कितने धनी थे, इसका पता “प्रकाश पंडित” को लिखे उनके खत से चलता है। “प्रकाश” साहब ने उनसे जब किताब प्रकाशित करने की अनुमति माँगी तो उन्होंने बड़े हीं सुलझे शब्दों में अपने को एक नाचीज़ साबित कर दिया। आप खुद देखिए कि उन्होंने क्या लिखा था।

बरादरम प्रकाश पण्डित, तस्लीमा !
आपके दो ख़त मिले। भई, मुझे अपने हालाते-ज़िन्दगी में क़तई दिलचस्पी नहीं है, न मैं चाहता हूं कि आप उन पर अपने पढ़ने वालों का वक्त ज़ाया करें। इन्तिख़ाब (कविताओं के चयन) और उसकी इशाअत (प्रकाशन) की आपको इजाज़त है। अपने बारे में मुख़्तसर मालूमात लिखे देता हूं। पैदाइश सियालकोट, 1911, तालीम स्कॉट मिशन हाई स्कूल सियालकोट, गवर्नमेंट, कालेज लाहौर (एम.ए.अंग्रेज़ी 1933, एम.ए. अरबी 1934)। मुलाज़मत एम.ए. ओ. कालेज अमृतसर 1934 से 1940 तक। हेली कालेज लाहौर 1940 से 1942 तक। फ़ौज में (कर्नल की हैसियत से) 1942 से 1947 तक। इसके बाद ‘पाकिस्तान टाइम्ज़’ और ‘इमरोज़’ की एडीटरी ताहाल (अब तक)। मार्च 1951 से अप्रैल 1955 तक जेलख़ाना (रावलपिंडी कान्सपिरेंसी केस के सिलसिले में)। किताबें ‘नक्शे-फ़र्यादी’, ‘दस्ते सबा’ और ‘ज़िन्दांनामा’।

-“फ़ैज़”
बेरुत, लेबनान
25-6-1981

फ़ैज़ साहब के बारे में कहने को और भी बहुत कुछ है। बाकी बातें आगे किसी कड़ी में करेंगे। अभी हम आगे बढने से पहले इन्हीं का एक शेर देख लेते हैं। हाल में हीं रीलिज हुई (या शायद होने वाली) फिल्म “सिकंदर” के एक गाने में इनके इस शेर का बड़ी हीं खूबसूरती से इस्तेमाल किया गया है।

गुलों में रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले,
चले भी आओ कि गुलशन का करोबार चले

आज हम जिस गज़ल को लेकर हाज़िर हुए हैं,उसे हमने एलबम “फ़ैज़ बाई आबिदा” से लिया है। ज़ाहिर है कि उस एलबम की सभी गज़लें या नज़्में फ़ैज़ की हीं लिखी हुई थी और आवाज़ थी “बेग़म” आबिदा परवीन की। “बेग़म” साहिबा के बारे में हमने पिछले एक एपिसोड में बड़ी हीं बारीकी से बात की थी। इसलिए आज इनके बारे में कुछ भी न कहा। वक्त आया तो इनके बारे में फिर से बात करेंगे। अभी तो आज की गज़ल/नज़्म का लुत्फ़ उठाईये:

गुल हुई जाती है अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम|
धुल के निकलेगी अभी, चश्म-ए-महताब से रात||

गुल हुई जाती है अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम|

और मुश्ताक निगाहों की सुनी जायेगी,
और उन हाथों से मस्स होंगे ये तरसे हुए हाथ||

उनका आँचल है कि रुख़सार के पैराहन हैं,
कुछ तो है जिससे हुई जाती है चिलमन रंगीं,
जाने उस ज़ुल्फ़ की मौहूम घनी छांवों में,
टिमटिमाता है वो आवेज़ा अभी तक कि नहीं||

गुल हुई जाती है अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम|

आज फिर हुस्न-ए-दिलारा की वही धज होगी,
वो ही ख्वाबीदा सी आँखें, वो ही काजल की लकीर,
रंग-ए-रुख्सार पे हल्का-सा वो गाज़े का गुबार,
संदली हाथ पे धुंधली-सी हिना की तहरीर।

अपने अफ़कार की अशार की दुनिया है यही,
जाने मज़मूं है यही, शाहिदे-ए-माना है यही,
अपना मौज़ू-ए-सुखन इन के सिवा और नही,
तबे शायर का वतन इनके सिवा और नही।

ये खूं की महक है कि लब-ए-यार की खुशबू,
किस राह की जानिब से सबा आती है देखो,
गुलशन में बहार आई कि ज़िंदा हुआ आबाद,
किस सिंध से नग्मों की सदा आती है देखो||

गुल हुई जाती है अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम|

चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली –

फ़ल्सफ़े इश्क़ में पेश आये सवालों की तरह
हम ___ ही रहे अपने ख़यालों की तरह

आपके विकल्प हैं –
a) उलझे, b) पशेमां, c) बहते, d) परेशाँ

इरशाद ….

पिछली महफिल के साथी –
पिछली महफिल का सही शब्द था -“सूरज” और शेर कुछ यूं था –

कहीं नहीं कोई सूरज, धुंआ धुंआ है फिज़ा,
खुद अपने आप से बाहर निकल सको तो चलो…

शरद जी जाने क्यों सुराग और सूरज को लेकर पशोपश में रहे, पर दिशा जी ने पूरे आत्मविश्वास के साथ सही जवाब पेश किया. दिशा जी का शेर गौर फरमाएं –

गर न चमके सूरज तो दुनिया में रोशनी कहाँ होगी
न तो सुबह का नाम बचेगा न चाँद में चाँदनी रहेगी

मंजू जी ने अपनी कविता के कुछ अंश यूं पेश किये –

राह दिखता सूरज जग को,रीति,नीति,विवेक बतलाता .
सत्य,नियम आनुसाशन का पालन, जीवन को सफल बनता

मनु जी ठहरे ‘वजन” वाले इंसान तो नाप तोल कर सही जवाब दिया इस शेर के साथ –

यार बना कर मुझ को सीढी, तू बेशक सूरज हो जा……….
देख ज़रा मेरी भी जानिब, मुझको भी कुछ बख्श जलाल..

और
अभी तो दामने-गुल में थी शबनम की हसीं रंगत
अभी सूरज उधर ही चल पड़ा है हाथ फैलाए

कुलदीप अंजुम साहब आपने शायर एकदम सही बताया पर हर बार की तरह आप निदा साहब के कुछ शेर याद दिलाते तो मज़ा आता, सुमित जी को महफिल की ग़ज़ल पसंद आई, अच्छा लगा जानकार.

कल सदी का सबसे बड़ा सूर्य ग्रहण होने वाला है, चलते चलते सूरज को सलाम करते हैं शमिख फ़राज़ जी की इस शायरी के साथ –

तेरी यादों ने पिघलाया है ऐसे
कि सूरज को छुआ हो मैंने जैसे
हाँ मैंने हर सिम्त हर तरफ से
हाँ मैंने हर लपट और कुछ निकट से….

जलता रहे सूरज वहां आसमान पर और यहाँ हम सबके जीवन में यूँहीं उजाले कायम रहे इसी दुआ के साथ लेते हैं आपसे इजाज़त अगली महफिल तक. खुदा हाफिज़.
प्रस्तुति – विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. “महफ़िल-ए-ग़ज़ल” श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक “तन्हा”. साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -“शान-ए-महफिल”. हम उम्मीद करते हैं कि “महफ़िल-ए-ग़ज़ल” का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Related posts

आप के पहलू में आकर रो दिए… मदन मोहन के सुरों पर रफी साहब की दर्द भरी आवाज़

Sajeev

कुहु कुहु बोले कोयलिया… चार रागों में गुंथा एक अनूठा गीत

Sajeev

अनुपमा चौहान का साक्षात्कार (Interview of Anupama Chauhan)

Amit