Uncategorized

दीपक राग है चाहत अपनी, काहे सुनाएँ तुम्हें… "होशियारपुरी" के लफ़्ज़ों में बता रही हैं "शाहिदा"

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #४३

यूँतो पिछली महफ़िल बाकी के महफ़िलों जैसी हीं थी। लेकिन “प्रश्न-पहेली” के आने के बाद और दो सवालों के जवाब देने के क्रम में कुछ ऐसा हुआ कि एकबारगी हम पशोपेश में पड़ गए कि अंकों का बँटवारा कैसे करें। इससे पहले हमारी ऐसी हालत कभी नहीं हुई थी। तो हुआ यूँ कि सीमा जी ने प्रश्नों का जवाब तो सबसे पहले दिया लेकिन दूसरे प्रश्न में उनका आधा जवाब हीं सही था। इसलिए हमने निश्चय कर लिया था कि उन्हें ३ अंक हीं देंगे। फिर शरद जी सही जवाबों के साथ महफ़िल में हाज़िर हुए। इस नाते उनको २ अंक मिलना तय था(और है भी)। लेकिन शरद जी के बाद सीमा जी फिर से महफ़िल में तशरीफ़ लाईं और इस बार उन्होंने उस आधे सवाल का सही जवाब दिया। अब स्थिति ऐसी हो गई कि न उन्हें पूरे अंक दे सकते थे और न हीं ३ अंक पर हीं छोड़ा जा सकता था। इसलिए “बुद्ध” का मध्यम मार्ग निकालते हुए हम उन्हें आधे जवाब के लिए आधा अंक देते हैं। इस तरह सीमा जी को मिलते हैं ३.५ अंक और शरद जी को २ अंक। अब बारी है आज के प्रश्नों की| आज की कड़ी से हम नियमों में थोड़ा बदलाव कर रहे हैं। तो ये रहे प्रतियोगिता के बदले हुए नियम और उसके आगे दो प्रश्न: ५० वें अंक तक हम हर बार आपसे दो सवाल पूछेंगे जिसके जवाब उस दिन के या फिर पिछली कड़ियों के आलेख में छुपे होंगे। अगर आपने पिछली कड़ियों को सही से पढा होगा तो आपको जवाब ढूँढने में मुश्किल नहीं होगी, नहीं तो आपको थोड़ी मेहनत करनी होगी। और हाँ, हर बार पहला सही जवाब देने वाले को ४ अंक, उसके बाद २ अंक और उसके बाद हर किसी को १ अंक मिलेंगे। इन १० कड़ियों में जो भी सबसे ज्यादा अंक हासिल करेगा, वह महफ़िल-ए-गज़ल में अपनी पसंद की ५ गज़लों की फरमाईश कर सकता है, वहीं दूसरे स्थान पर आने वाला पाठक अपनी पसंद की ३ गज़लों को सुनने का हक़दार होगा। इस तरह चुनी गई आठ गज़लों को हम ५३वीं से ६०वीं कड़ी के बीच पेश करेंगे। और साथ हीं एक बात और- जवाब देने वाले को यह भी बताना होगा कि “अमुक” सवाल किस कड़ी से जुड़ा है। तो ये रहे आज के सवाल: –

१) “नेशनल ज्योग्राफ़िक” के कवर पर आने वाली वह फ़नकारा जिनकी बहन का निक़ाह एक पाकिस्तानी सीनेटर से हुआ है। उस फ़नकारा का नाम बताएँ और यह भी बताएँ कि हम किस सीनेटर की बातें कर रहे हैं।
२) “मदन मोहन” के साथ काम करने की चाहत में बंबई आने वाले एक फ़नकार जिन्होंने “भीम सेन” की एक फ़िल्म में गीत लिखकर पहली बार शोहरत का स्वाद चखा। फ़नकार के नाम के साथ उस गीत की भी जानकारी दें।

आज हम जिस फ़नकारा से आपको मुखातिब कराने जा रहे हैं उनकी माँ खुद एक गायिका रह चुकी थीं। चूँकि उनकी माँ को संगीत की समझ थी इसलिए वे चाहती थीं कि उनकी बेटी उन गुरूओं की शागिर्दगी करे जिनका नाम पूरी दुनिया जानती है और जिनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। आगे बढने से पहले अच्छा होगा कि हम आपको उनकी माँ का नाम बता दें। तो हम बातें कर रहे हैं “ज़ाहिदा परवीन” जी की। ज़ाहिदा जी को संगीत की पहली तालीम मिली थी बाबा ताज कपूरथलावाले सारंगीवाज़ और हुसैन बख्श खान सारंगीवाज़ से। कुछ सालों के बाद वे उस्ताद आशिक़ अली खां की शागिर्द हो गईं जो पटियाला घराने से संबंध रखते थे। ज़ाहिदा जी यूँ तो कई तरह के गाने गाती थीं, लेकिन “काफ़ी” गाने में उनका कोई सानी न था। “काफ़ी” के अलावा गज़ल, ठुमरी, खयाल भी वो उसी जोश और जुनूं के साथ गातीं थी। “ज़ाहिदा” जी के बाद जब उनकी बेटी “शाहिदा परवीन” का इस क्षेत्र में आना हुआ तो “ज़ाहिदा” जी ने अपनी बेटी के गुरू के तौर पर उस्ताद अख्तर हुसैन खां को चुना, जो उस्ताद अमानत अली खां और उस्ताद फतेह अली खां के पिता थे। उस्ताद अख्तर हुसैन खां के सुपूर्द-ए-खाक़ होने के बाद “शाहिदा” ने उस्ताद छोटे गुलाम अली खां की शागिर्दगी की , जो “क़व्वाल बच्चों का घराना” से ताल्लुकात रखते हैं। जानकारी के लिए बता दें कि “क़व्वाल बच्चों के घराने” में कबीर को गाने की परंपरा रही है। १९७५ में ज़ाहिदा परवीन की मौत के बाद शाहिदा को यह सफ़र अकेले हीं तय करना था। शाहिदा को उनके रियाज़ और उनके गायन के बदौलत वह मुकाम हासिल हो चला था कि लोग उन्हें “रोशन आरा बेगम” के समकक्ष मानने लगे थे। फिर जब “रोशन आरा” भी इस दुनिया में नहीं रहीं तब तो शाहिदा हीं एक अकेली क्लासिकल गायिका थीं जो उनकी कमी को पूरा कर सकती थीं। लेकिन ऐसा न हुआ। कुछ तो वक्त का तकाज़ा था तो कुछ शाहिदा में अकेले आगे बढने की हिम्मत की कमी। जबकि वो मुल्तानी( इस राग को गाना या कहिए निबाहना हीं बड़ा कठिन होता है क्योंकि इसमें रिखब के नुआंसेस सही पकड़ने होते हैं) बड़े हीं आराम से गा सकती थी, फिर भी न जाने क्यों मंच से वो बागेश्वरी, मेघ या मालकौंस हीं गाती थीं, जो कि अमूमन हर कोई गाता है। शाहिदा ने अपने आप को अपनी माँ के गाए काफ़ियों तक हीं सीमित रखा। इसलिए संगीत के कुछ रसिक उनसे नाराज़ भी रहा करते थे। पर जो भी उनके रहने तक यह उम्मीद तो थी कि कोई है जो “रोशन आरा” की तरह गा सकती है, लेकिन १३ मार्च २००३ को उनके दु:खद निधन के बाद यह उम्मीद भी खत्म हो गई।

“शाहिदा” के बारें में कहने को और भी बहुत कुछ है, लेकिन वो सब बातें कभी अगली कड़ी में करेंगे। अब हम आज की गज़ल के शायर “हफ़ीज़ होशियारपुरी” की तरफ़ रूख करते हैं। यूँ तो अभी हम जिन बातों का ज़िक्र करने जा रहे हैं उनका नाता सीधे तौर पर हफ़ीज़ साहब से नहीं है, फिर भी चूँकि उन बातों में इनका भी नाम आता है, इसलिए इसे सही वक्त माना जा सकता है। “बाज़ार की एक रात” के लेखक और एक समय में पेशावर रेडियो स्टेशन के स्क्रीप्ट राईटर रह चुके मुशर्रफ़ आलम ज़ौकी साहब सआदत हसन “मंटो” को याद करते हुए अपने एक लेख “इंतक़ाल के पचास बरस बाद मंटो ज़िंदा हो गया” में लिखते हैं: रेडियो पाकिस्तान से मंटो का अफ़साना ‘नया क़ानून’ सुनकर मैं आश्चर्यचकित रह गया कि ये वही हमारी कौमी रेड़ियो सर्विस है जिसने अपने यहाँ मंटो की रचनाओं को बन्द कर रखा था। क़यामे-पाकिस्तान के बाद जब मंटो लाहौर गया तो उसे विश्वास था कि उसकी साहित्यिक ख़िदमत में कोई कमी नहीं होगी। लेकिन इस ख़ुशफ़हमी का अन्त होते देर न लगी। लाहौर आकर उसने रोज़ी-रोटी के सिलसिले में काफ़ी मेहनत की लेकिन ‘अश्लील लेखक मंटो’ किसी भी मरहले में सफल न हो सका। मैं भी 1948 में पेशावर छोड़ कर लाहौर आ गया और मंटो से करीब-करीब रोज़ाना मुलाक़ात रही। लेकिन मैं भी उसी की तरह बेरोज़गार था। एक बेरोज़गार दूसरे बेरोज़गार की क्या मदद करता। उन्हीं दिनों मर्कज़ी हुकूमत के वजीर इत्तलाआत व नशरियात और प्रसिद्ध लेखक एस. एम. एकराम साहब लाहौर आए और जनाब हफ़ीज़ होशियारपुरी को, जो स्टेशन डायरेक्टर या असिस्टेंट डायरेक्टर थे, मेरे पास भेजा कि शाम की चाय मेरे साथ पियो। मुझे आश्चर्च अवश्य हुआ लेकिन पैग़ाम लाने वाले मेरे दोस्त और मशहूर शायर हफीज़ होशियारपुरी थे। और निमत्रण देने वाले अनेक श्रेष्ठ ऐतिहासिक पुस्तकों के लेखक थे। मैं हाज़िर हुआ तो एकराम साहब बड़ी मुहब्बत से मिले। मुझे इस मुहब्बत पर कुछ आश्चर्य भी हुआ कि मुझको तो दूसरे बहुत से लेखकों के साथ उनके विभाग ने “बैन” कर रखा था। उन्होंने गुफ़्तुगू का आग़ाज़ ही इस बात से किया कि मेरे सम्मान में केवल मुझ पर से पाबन्दी हटा रहे हैं। मैं उठ खड़ा हुआ और अर्ज़ किया कि आप जैसे विद्वान व्यक्ति से मुझे इस तरह की पेशकश की आशा नहीं थी। मैं अपने दोस्तों को धोखा देने के बारे में सोच भी नहीं सकता जबकि मेरे दोस्तों में मंटो जैसे महान रचनाकार भी मौजूद हैं। मैं ये कहकर वहाँ से चला आया। बाद में हफीज़ साहब से इस ज़्यादती का शिकवा किया तो उन्होंने क़समें खाकर बताया कि उन्हें एकराम साहब के प्रोग्राम का पता नहीं था। अब आज का हाल देखिए कि जब मंटो नहीं रहा तो उसकी किस तरह से कद्र बढ गई है। मेरी समझ में एक बात कभी नहीं आई कि जो दुनिया छोड़ कर चले गए, उनके बारे में सिर्फ़ अच्छा क्यों लिखा जाता है। उनके ज़िंदा रहते में तो कोई उन्हें पूछने तक नहीं आता। इस तरह से “मंटो” के बहाने हीं सही, लेकिन ज़ौकी साहब ने बड़ा हीं महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है। कभी आप भी इस पर विचार कीजिएगा। उससे पहले हफ़ीज़ साहब के इस शेर पर जरा गौर फ़रमा लिया जाए:

आज उन्हें कुछ इस तरह जी खोलकर देखा किए,
एक हीं लम्हे में जैसे उम्र-भर देखा किए।

कुछ बड़ी हीं ज़रूरी बातों के बाद अब वक्त है आज की गज़ल का। तो लीजिए पेश है “शाहिदा” की मधुर आवाज़ में यह गज़ल:

दीपक राग है चाहत अपनी, काहे सुनाएँ तुम्हें,
हम तो सुलगते हीं रहते हैं, क्यों सुलगाएँ तुम्हें।

तर्क-ए-मोहब्बत, तर्क-ए-तमन्ना कर चुकने के बाद,
हम पे ये मुश्किल आन पड़ी है, कैसे बुलाएँ तुम्हें।

सन्नाटा जब तन्हाई के ज़हर में बुझता है,
वो घड़ियों क्यों कर कटती हैं, कैसे बताएँ तुम्हें।

जिन बातों ने प्यार तुम्हारा नफ़रत में बदला,
डर लगता है वो बातें भी भूल न जाएँ तुम्हें।

चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली –

___ की हर-एक शादाब गली, रुवाबों का जज़ीरा थी गोया
हर मौजे-नफ़स, हर मौजे सबा, नग़्मों का ज़खीरा थी गोया

आपके विकल्प हैं –
a) शहर, b) वतन, c) बस्ती, d) मोहल्ले

इरशाद ….

पिछली महफिल के साथी –
पिछली महफिल का सही शब्द था “बाम” और शेर कुछ यूं था –

तुझ पे भी बरसा है उस बाम से मेह्ताब का नूर
जिस में बीती हुई रातों की कसक बाक़ी है..

“फ़ैज़” की इस नज़्म को सबसे पहले सही पहचाना सीमा जी ने। आपने फ़ैज़ की वह नज़्म भी महफ़िल में पेश की जिससे ये दो मिसरे लिए गए हैं। शरद जी ने सही फ़रमाया था कि आपने शेरों और नज़्मों की वह दीवार खड़ी कर दी थी कि किसी और का सेंध लगाना नामुमकिन था। शायद यही वज़ह है कि हम भी निश्चित नहीं कर पा रहे कि कौन-सा शेर यहाँ पेश करें और कौन-सा छोड़ें। फिर भी कुछ शेर जो हमारे दिल को छू गएँ:

जब भी गुज़रा वो हसीं पैकर मेरे इतराफ़ से,
दी सदा उसको हर एक दर ने हर एक बाम ने

ज़रा सी देर ठहरने दे ऐ ग़म-ए-दुनिया
बुला रहा है कोई बाम से उतर के मुझे (नासिर काज़मी)

माँगे है फिर किसी को लब-ए-बाम पर हवस
ज़ुल्फ़-ए-सियाह रुख़ पे परेशाँ किये हुए (मिर्ज़ा ग़ालिब)

ये हिन्दियों के फ़िक्र-ए-फ़लक रस का है असर
रिफ़त में आसमाँ से भी ऊँचा है बाम-ए‍-हिन्द (इक़बाल)

हवा के ज़ोर से पिंदार-ए-बाम-ओ-दार भी गया
चिराग़ को जो बचाते थे उन का घर भी गया (अहमद फ़राज़)

सीमा जी की किलाबंदी को भेदते हुए महफ़िल में हाज़िर हुए “शामिख फ़राज़”। आपने न सिर्फ़ उर्दू/हिंदी के शेर कहे बल्कि ब्रजभाषा (जहाँ तक मुझे मालूम है) की भी एक रचना पेश की। यह रही आपकी पेशकश:

मुरली सुनत बाम काम-जुर लीन भई (देव)

हर बाम पर रोशन काफ़िला – ए – चिराग़
हर बदन पर कीमती चमकते हुए लिबास

बाम-ऐ-मीना से माहताब उतरे
दस्त-ए-साकी में आफताब आये

सुमित जी महफ़िल में आए तो लेकिन चूँकि उन्हें बाम का अर्थ मालूम न था तो वो सही से कुछ सुना न सके। मंजु जी ने न सिर्फ़ सुमित जी का कुतूहल शांत किया बल्कि कुछ स्वरचित पंक्तियाँ(दोहा) भी पेश की:

हिमालयराज की पुत्री ,ने सहा खूब ताप .
हुयी थी शादी शिव की, पाया शिव का बाम।

आप दोनों के बाद महफ़िल में हाज़िरी लगाई कुलदीप जी ने। ये रहे आपकी तरकश के तीर:

कितना सितमज़रीफ़ है वो साहिब-ऐ-जमाल
उस ने दिया जला के लब-ऐ-बाम रख दिया

देख कर अपने दर -ओ -बाम लरज़ उठाता हूँ
मेरे हमसाये में जब भी कोई दीवार गिरे

अंत में हमारी महफ़िल में नज़र आईं रचना जी। यह रहा आपका पेश किया हुआ शेर:

बाम-ऐ-शोहरत से एक शाम चुरा के देखो
दर्द किसी और का दिल में उठा के देखो

मनु जी इतने से काम नहीं चलेगा। आपके शेर को तभी उद्धृत करूँगा जब आप थोड़ा वक्त यहाँ गुजारेंगे। हमारी तरफ़ एक कहावत है कि “हड़बड़ का काम गड़बड़ हीं होता है”। सोचिए..यह आप पर कितना फिट बैठता है!

चलिए इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए विदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति – विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. “महफ़िल-ए-ग़ज़ल” श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक “तन्हा”. साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -“शान-ए-महफिल”. हम उम्मीद करते हैं कि “महफ़िल-ए-ग़ज़ल” का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Related posts

क्या क्या कहूँ रे कान्हा…पी सुशीला और रमेश नायडू ने रचा ये दुर्लभ गीत

Sajeev

वो जब याद आए बहुत याद आए…

Amit

तमाम बड़े संगीतकारों के बीच रह कर भी जयदेव ने बनायीं अपनी खास जगह अपने खास अंदाज़ से

Sajeev