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आजा रे परदेसी, मैं तो कब से खडी इस पार….लता के स्वरों में गूंजी शैलेन्द्र की पीड़ा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 282

“शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी” शृंखला की दूसरी कड़ी में आपका स्वागत है। इस शृंखला में हम ना केवल राज कपूर निर्मित फ़िल्मों के बाहर शैलेन्द्र के लिखे गीत सुनवा रहे हैं, बल्कि ये सभी गानें अपने आप में एक एक मास्टरपीस हैं और एक दूसरे से बिल्कुल जुदा है, अलग है, अनूठा है। आज जिस गीत को हमने चुना है वह एक हौंटिंग् नंबर है लता जी का गाया हुआ। ५० और ६० के दशकों में एक ट्रेंड चला था सस्पेन्स फ़िल्मों का और हर ऐसी फ़िल्म में लता जी का गाया हुआ एक हौंटिंग् गीत होता था। १९४९ में फ़िल्म ‘महल’ के बाद १९५८ में अगली इस तरह की सुपरहिट सस्पेन्स फ़िल्म आई ‘मधुमती’ जो पुनर्जनम की कहानी पर आधारित थी। इस फ़िल्म में शैलेन्द्र ने एक ऐसा गीत लिखा जिसे गा कर लता जी को अपने जीवन का पहला फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला। जी हाँ, “मैं तो कब से खड़ी इस पार, ये अखियाँ थक गईं पंथ निहार, आजा रे परदेसी”। सलिल चौधरी के मीठे धुनों से सजी इस फ़िल्म के सभी के सभी गानें ख़ूब ख़ूब सुने गये और आज भी उनकी चमक उतनी ही बरकरार है, और रेडियो पर इस फ़िल्म के गानें तो अक्सर सुना जा सकता है। और विविध भारती के फ़रमाइशी कार्यक्रमों में भी इस फ़िल्म के गीतों की फ़रमाइशें इस फ़िल्म के बनने के ५० साल बाद भी कुछ कम होती दिखाई नहीं देती। दोस्तों, ‘मधुमती’ से जुड़ी तमाम जानकारियाँ हमने आपको उस दिन ही दे दिए थे जिस दिन ‘१० गीत जो थे मुकेश को प्रिय’ शृंखला के अंतर्गत इस फ़िल्म का “सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं” गीत सुनवाया था। इसलिए आज उन बातों को बिना दोहराते हुए हम आपको शैलेन्द्र जी से जुड़ी कुछ और बातें बताते हैं।

शब्दों की दुनिया शैलेन्द्र की दासी थी। भाषा की पकड़ बेहद मज़बूत लेकिन बेहद सरल शब्दावली का इस्तेमाल किया करते थे। “मैं दीये की ऐसी बाती, जल ना सकी जो बुझ भी ना पाती”, या फिर “मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी, भेद यह गहरा बात ज़रा सी” जैसी उपमाओं के पीछे कितनी दार्शनिक और गंभीर बातें छुपी हुई हैं, गीत को उपर उपर सुनते हुए अहसास ही नहीं होता। मुंबई के बोरीवली निवासी सुशील ठाकुर के बहनोई थे शैलेन्द्र। सुशील जी शैलेन्द्र जी को बहुत क़रीब से देखा था और जाना भी। विविध भारती ने एक बार सुशील जी को आमंत्रण दिया था शैलेन्द्र जी पर कुछ कहने के लिए। उन्होने कहा था – “मेरा और उनका तो जैसे बाप बेटे का रिश्ता था। जाड़ों के दिनों में मैं उनकी रजाई में घुस जाता था और उन्हे कविताएँ सुनाने के लिए कहता था। उनके शब्द बड़े ही सरल हुआ करते थे। १९४७ में उनकी शादी हुई और परेल के रेल्वे वर्कशॊप में नौकरी कर ली। रेल्वे का छोटा सा कमरा था जिसमें बस एक पलंग था। पूरा ख़ानदान उसी में रहते थे। उन पर कम्युनिस्ट पार्टी का प्रभाव था। एक बार इपटा के किसी जल्से में वे अपनी कविताएँ सुना रहे थे कि राज कपूर की नज़र उन पर पड़ी और उन्हे गीत लिखने का ऑफर दे दिया। पर शैलेन्द्र जी उसे ठुकरा दिया। राज साहब ने कहा था कि कभी भी अगर पैसों की ज़रूरत पड़े तो उन्हे ज़रूर बताएँ, वे उनसे गीत लिखवाना चाहते हैं। शैलेन्द्र जी का बच्चा हुआ तो उनकी आर्थिक परेशानियाँ बढ़ गईं और वे राज साहब के पास जा पहुँचे। राज कपूर ने कहा कि अभी अभी मैं फ़िल्म ‘आग’ बना चुका हूँ, फिर जब मैं कोई फ़िल्म बनाउँगा तो आप को ज़रूर मौका दूँगा। उन्होने उनकी आर्थिक सहायता की और फ़िल्म ‘बरसात’ में उन्हे गीत लिखने का ऑफर दे दिया।” और दोस्तों, इस तरह से पदार्पण हुआ इस महान गीतकार का फ़िल्म जगत में। शैलेन्द्र जी की बातें आगे भी जारी रहेंगी, आइए अब सुना जाए आज का गीत फ़िल्म ‘मधुमती’ से।

और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला “ओल्ड इस गोल्ड” गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी (दो बार), स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)”गेस्ट होस्ट”.अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. राग तोड़ी पर आधारित एक और भक्ति में डूबा गीत शैलेन्द्र का रचा.
२. राज नवाथे निर्देशक थे इस फिल्म के.
३. इस निराशावादी गीत के एक अंतरे की अंतिम पंक्ति में शब्द है -“मोती”.

पिछली पहेली का परिणाम –
शैलेन्द्र को समर्पित इस नयी शृंखला में भी इंदु जी ने लीड बरकरार रखी है और २८ अंकों के साथ वो अब वो रोहित जी स्कोर के अधिक करीब आ गयी हैं, पाबला जी आप तो बहुत बड़े स्टार निकले :), दिलीप जी, आपने एकदम दुरुस्त फ़रमाया…

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

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