कल हमने बात की सलिल दा की और बताया की किस तरह उन्होंने खोजा दक्षिण भारत से एक ऐसा गायक जो आज की तारीख में मलयालम फ़िल्म संगीत का दूसरा नाम तो है ही पर जितने भी गीत उन्होंने हिन्दी में भी गाये वो भी अनमोल साबित हुए. आज हम बात करेंगे ४०.००० से भी अधिक गीतों को अपनी आवाज़ से संवारने वाले गायकी के सम्राट येसुदास की.
लगभग ४ दशकों से उनकी आवाज़ का जादू श्रोताओं पर चल रहा है, और इस वर्ष १० जनवरी को उन्होंने अपने जीवन के ६० वर्ष पूरे किये हैं. उनके पिता औगेस्टीन जोसफ एक मंझे हुए मंचीय कलाकार एवं गायक थे, जो हर हाल में अपने बड़े बेटे येसुदास को पार्श्वगायक बनाना चाहते थे. उनके पिता जब वो अपनी रचनात्मक कैरिअर के शीर्ष पर थे तब कोच्ची स्थित उनके घर पर दिन रात दोस्तों और प्रशंसकों का जमावडा लगा रहता था. पर जब बुरे दिन आए तब बहुत कम थे जो मदद को आगे आए. येसुदास का बचपन गरीबी में बीता, पर उन्होंने उस छोटी सी उम्र से अपने लक्ष्य निर्धारित कर लिए थे, ठान लिया था की अपने पिता का सपना पूरा करना ही उनके जीवन का उद्देश्य है. उन्हें ताने सुनने पड़े जब एक इसाई होकर वो कर्नाटक संगीत की दीक्षा लेने लगे. ऐसा भी समय था कि वो अपने RLV संगीत अकादमी की फीस भी बमुश्किल भर पाते थे और एक ऐसा भी दौर था जब चेन्नई के संगीत निर्देशक उनकी आवाज़ में दम नही पाते थे और AIR त्रिवेन्द्रम ने उनकी आवाज़ को प्रसारण के लायक नही समझा. पर जिद्द के पक्के उस कलाकार ने सब कुछ धैर्य के साथ सहा.
“एक जात, एक धर्म, एक ईश्वर” आदि नारायण गुरु के इस कथन को अपने जीवन मन्त्र मानने वाले येसुदास को पहला मौका मिला १९६१ में बनी “कलापदुक्कल” से. शुरू में उनकी शास्त्रीय अंदाज़ की सरल गायकी को बहुत से नकारात्मक टिप्पणियों का सामना करना पड़ा पर येसु दा ने फ़िर कभी पीछे मुड कर नही देखा. संगीत प्रेमियों ने उन्हें सर आँखों पे बिठाया. भाषा उनकी राह में कभी दीवार न बन सकी. वो प्रतिष्टित पदमश्री और पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित हुए और उन्हें ७ बार पार्श्व गायन के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला, जिसमें से एक हिन्दी फ़िल्म “चितचोर” के गीत “गोरी तेरा गाँव” के लिए भी था.
मलयालम फ़िल्म संगीत तो उनके जिक्र के बिना अधूरा है ही पर गौरतलब बात ये है कि उन्होंने हिन्दी में भी जितना काम किया, कमाल का किया. सलिल दा ने उन्हें सबसे पहले फ़िल्म “आनंद महल” में काम दिया. ये फ़िल्म नही चली पर गीत मशहूर हुए जैसे “आ आ रे मितवा …”. फ़िर रविन्द्र जैन साहब के निर्देशन में उन्होंने चितचोर के गीत गाये. येसु दा बेशक कम गीत गाये पर जितने भी गाये वो सदाबहार हो गए. मलयालम फ़िल्म इंडस्ट्री में “दासेएटन” के नाम से जाने जाने वाले येसुदा की तम्मना थी कि वो मशहूर गुरुवायुर मन्दिर में बैठकर कृष्ण स्तुति गाये पर मन्दिर के नियमों के अनुसार उन्हें मन्दिर में प्रवेश नही मिल सका. और जब उन्होंने अपने दिल बात को एक मलयालम गीत “गुरुवायुर अम्बला नादयिल..” के माध्यम से श्रोताओं के सामने रखा, तो उस सदा को सुनकर हर मलयाली ह्रदय रो पड़ा था.
जैसा कि युनुस भाई ने भी अभी हाल ही में अपने चिट्टे में जिक्र किया था कि येसु दा के हिन्दी फिल्मी गीत आज भी खूब “डिमांड” में हैं, हम अपने संगीत प्रेमियों और श्रोताओं के लिए लाये हैं येसु दा के चुनिन्दा हिन्दी गीतों का एक गुलदस्ता. आनंद लें इस आवाज़ के जादूगर की खनकती आवाज़ में इन सदाबहार गीतों को सुनकर-
कल हम बात करेंगें येसु दा के एक खास “अनरिलीसड” गीत की और बात करेंगे एक और अदभुत संगीत निर्देशक की.