महफ़िल-ए-ग़ज़ल #०८
कुछ कड़ियाँ पहले मैने मन्ना डे साहब का वास्तविक नाम देकर लोगों को संशय में डाल दिया था। पूरा का पूरा एक पैराग्राफ़ इसीपर था कि दिए गए नाम से फ़नकार को पहचानें। आज सोच रहा हूँ कि वैसा कुछ फिर से करूँ। अहा… आप तो खुश हो गए होंगे कि मैने तो इस आलेख का शीर्षक हीं “आशा ताई की गुहार” दिया है तो चाहे कोई भी नाम क्यों न दूँ फ़नकार तो आशा ताई हीं हैं। लेकिन पहेली अगर इतनी आसान हो तो पहेली काहे की। तो भाई पहेली यह है कि आज के फ़नकार एक संगीतकार हैं और उनका वास्तविक नाम है “मोहम्मद ज़हुर हासमी”। अब पहचानिए कि मैं किस संगीतकार के बारे में बात कर रहा हूँ। आपकी सहूलियत के लिए दो हिंट देता हूँ- क) इस आलेख के शीर्षक को सही से पढें। हम जिस गज़ल की आज बात कर रहे हैं..उसका नाम इस शीर्षक में है और उस गज़ल के एलबम के नाम में इन संगीतकार का नाम भी है। ख) १९७६ में बनी एक फ़िल्म में दो नायक और एक नायिका ऎसे त्रिकोण में उलझे कि एक बार मुकेश को तो एक बार लता जी को कहना पड़ा -“…दिल में ख़्याल आता है”। यह ख़्याल किसी और का नहीं..इन्हीं का था। चलिए एक अतिरिक्त हिंट भी देता हूँ…. दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिए…इस गाने को आशा ताई ने गाया था..और इसके संगीतकार यही महानुभाव थे। अब आप लोग अपने दिमागी नसों पर जोर दें और हमारे आज के फ़नकार को पहचानें और उनका एहतराम करें।
मुझे मालूम है कि सारे हिंट आसान थे, इसलिए “ख़य्याम” साहब को पहचानने में कोई तकलीफ़ नहीं हुई होगी। “ख़य्याम” साहब ने हिंदी फ़िल्मी-संगीत को एक से बढकर एक नग्में दिए हैं। वहीं अगर गैर-फ़िल्मी गानों या गज़लों की बात करें तो इस क्षेत्र में भी ख़य्याम साहब का खासा नाम है। जहाँ एक ओर इन्होंने मिर्ज़ा ग़ालिब, दाग़ दहलवी, वली साहब, अली सरदार ज़ाफ़री, मज़रूह सुल्तानपुरी, साहिर लु्धियानवी, कैफ़ी आज़मी जैसे पुराने और मंझे हुए गीतकारों और गज़लकारों के लिए संगीत दिया है, वहीं निदा फ़ाज़ली, नख़्स लायलपुरी, अहमद वासी जैसे नए गज़लगो की गज़लों को भी अपने सुरों से सजाया है। इस तरह ख़य्याम किसी एक दौर के फ़नकार नहीं कहे जा सकते है,उनका संगीत तो सदाबहार है। अब हम आज की गज़ल की ओर बढते हैं। महफ़िल-ए-गज़ल की दूसरी कड़ी में हमने इसी एलबम के एक गज़ल को सुनाया था-“लोग मुझे पागल कहते हैं”। मुझे उम्मीद है कि आप अभी तक उस गज़ल में आशा ताई की मखमली आवाज़ को नहीं भूले होंगे। उस गज़ल में जैसा सुरूर था, मैं दावा करता हूँ कि आपको आज की गज़ल में भी वैसा हीं सुरूर सुनाई देगा….वैसा हीं दर्द महसूस होगा। यह तो सबको पता होगा कि ख़य्याम साहब और आशा ताई ने बहुत सारे फ़िल्मी गानों में साथ काम किया है। इसी साथ का असर था कि “इन आँखों की मस्ती के”,”ये क्या जगह है दोस्तों” जैसे गानें बनकर तैयार हुए। इस जोड़ी की एक गज़लों की एलबम भी आई थी, जिसका नाम था “आशा और ख़य्याम”। आज की गज़ल “चाहा था एक शख़्स को” इसी मकबूल एलबम से है।
“आँखों को इंतज़ार का देके हुनर चला गया”- यह हुनर भी एक “कमाल” है, यह कभी एक कशिश है तो कभी एक खलिश है। प्यार में डूबी निगाहें इस इंतज़ार का अनुभव नहीं करना चाहतीं, वहीं जिन निगाहों को प्यार नसीब नहीं, उनके लिए यह इंतज़ार भी दुर्लभ होता है और वे इस मज़े के लिए तरसती हैं। तो फिर यह इंतज़ार है ना कमाल की चीज? कभी इस इंतज़ार का सही मतलब जानना हो तो उनसे पूछिये जिनका प्यार अब उनका नहीं रहा। उन लोगों ने इस इंतज़ार के तीन रूप देखे हैं- पहला: जब प्यार नहीं था तब इंतज़ार की चाह, दूसरा: जब प्यार उनकी पनाहों में था तब अनचाहे इंतज़ार का लुत्फ़ और तीसरा: अब जब प्यार उनका नहीं रहा तब इंतज़ार का दर्द। मेरे अनुसार अगर तीसरे इंतज़ार को छोड़ दें तो बाकी दो का अपना हीं एक मज़ा है। लेकिन तीसरा इंतज़ार इन दोनों पर कई गुणा भारी पड़ता है। अगर मालूम हो कि आप जिसकी राह देख रहे हों वह नहीं आने वाला लेकिन फिर भी आप उसकी राह तकने पर मजबूर हों तो इस पीड़ा को क्या नाम देंगे…किस्मत के सिवा…..!!!
आज की गज़ल की ओर बढने से पहले मैं अपना कुछ सुनाना चाहता हूँ। मुलाहजा फरमाईयेगा:
वो दूर गया अपनों की तरह,
फिर गैर हुआ सपनों की तरह।
यह तो हुआ मेरा शेर, अब हम आशा ताई की तरसती आँखों के जरिये प्रेम की अनबूझ कहानी का रसास्वादन करते हैं। आप खुद देखिये कि “कमाल” साहब ने अपने शब्दों से क्या कमाल किया है:
आँखों को इंतज़ार का देके हुनर चला गया,
चाहा था एक शख़्स को जाने किधर चला गया।
दिन की वो महफ़िलें गईं रातों के रतजगे गए,
कोई समेट कर मेरे शाम-औ-सहर चला गया।
झोंका है एक बहार का रंग-ए-ख़्याल-ए-यार भी,
हरसू बिखर बिखर गई खुशबू, जिधर चला गया।
उसके हीं दम से दिल में आज धूप भी चाँदनी भी है,
देके वो अपनी याद के शम्स-औ-क़मर चला गया।
कूँचा-ब-कूँचा दर-ब-दर कब से भटक रहा है दिल,
हमको भु्लाके राह वो अपनी डगर चला गया।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक ख़ास शब्द होगा जो मोटे अक्षर में छपा होगा. वही शब्द आपका सूत्र है. आपने याद करके बताना है हमें वो सभी शेर जो आपको याद आते हैं जिसके दो मिसरों में कहीं न कहीं वही शब्द आता हो. आप अपना खुद का लिखा हुआ कोई शेर भी पेश कर सकते हैं जिसमें आपने उस ख़ास शब्द का प्रयोग किया हो. तो खंगालिए अपने जेहन को और अपने संग्रह में रखी शायरी की किताबों को. आज के लिए आपका शेर है – गौर से पढिये –
जिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाए रात भर,
भेजा वही कागज़ उसे, हमने लिखा कुछ भी नहीं…
इरशाद ….
पिछली महफ़िल के साथी-
पिछली महफिल का शब्द था -“रंगत”. शब्द कुछ मुश्किल था शायद…खैर शन्नो जी ने कोशिश की –
चमन में खुशबू तो है फूलों की पर वीराना है
बदल जाती है इनकी रंगत उनके यहाँ आने से….
वो कौन है शन्नो जी ये भी बताईये…अरे अरे मनु जी को भी कुछ याद आ गया है सुनिए –
ये खुली खुली सी जुल्फें, ये उडी उडी सी रंगत,
तेरी सुब्हा कह रही है, तेरी रात का फ़साना…
वैसे शन्नो जी अब महफ़िल की शान बनती जा रही हैं…धीरे धीरे शे’रों में भी वज़न आ जायेगा :), शैलेश जी, सलिल जी और राज जी आप सब ने भी महफिल में खूब रंग जमाया…आभार.
प्रस्तुति – विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. “महफ़िल-ए-ग़ज़ल” श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक “तन्हा”. साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -“शान-ए-महफिल”. हम उम्मीद करते हैं कि “महफ़िल-ए-ग़ज़ल” का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.