ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 153
‘दस चेहरे एक आवाज़ – मोहम्मद रफ़ी’ के तहत आज जिस चेहरे पर रफ़ी साहब की आवाज़ सजने वाली है, उस चेहरे का नाम है सुनिल दत्त। सुनिल दत्त उन अभिनेताओं में से हैं जिनका कई गायकों ने पार्श्व-गायन किया है जैसे कि तलत महमूद, मुकेश, किशोर कुमार, महेन्द्र कपूर, और रफ़ी साहब भी। रफ़ी साहब की आवाज़ और दत्त साहब के अभिनय से सजी एक बेहद मशहूर फ़िल्म रही है ‘ग़ज़ल’. १९६४ में बनी यह फ़िल्म एक मुस्लिम सामाजिक फ़िल्म थी। ज़ाहिर है ऐसे फ़िल्मों में उर्दू शायरी का बड़ा हाथ हुआ करता है और यह फ़िल्म भी व्यतिक्रम नहीं है। साहिर लुधियानवी के अशआर, मदन मोहन का संगीत, सुनिल दत्त और मीना कुमारी के अभिनय, तथा रफ़ी साहब की आवाज़, कुल मिलाकर आज यह फ़िल्म यादगार फ़िल्मों में अपना जगह बना चुकी है, और यह जगह इसके गीत संगीत के वजह से ही और ज़्यादा पुख़्ता हुई है। साहिर, मदन मोहन, रफ़ी साहब, ये तीनों अपने अपने क्षेत्र में अग्रणी रहे हैं और आज का प्रस्तुत गीत इन तीनों के संगीत सफ़र का एक महत्वपूर्ण अध्याय रहा है, इसमें कोई शक़ नहीं है। “रंग और नूर की बारात किसे पेश करूँ, ये मुरादों की हसीं रात किसे पेश करूँ”। मदन मोहन के संगीत में और रफ़ी साहब की आवाज़ पर सुनिल दत्त साहब के दो और बेहद मशहूर गीत रहे हैं “तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है” (चिराग़) एवं “आप के पहलू में आ कर रो दिये” (मेरा साया), जिनमें से यह दूसरा गीत आप ‘ओल्ड इज़ गोल्ड’ पर सुन चुके हैं।
वेद मदन निर्मित एवं निर्देशित फ़िल्म ‘ग़ज़ल’ के इस ग़ज़ल का फ़िल्मांकन कुछ इस तरह हुआ है कि सुनिल दत्त और मीना कुमारी एक दूसरे से प्यार करते हैं, लेकिन मीना कुमारी की शादी कहीं और हो रही है। और उसी शादी की महफ़िल में सुनिल दत्त को गीत गाने का अनुरोध किया गया है। अपनी बरबाद मोहब्बत के मज़ार पर खड़े हो कर नाकाम आशिक़ अपने जज़्बात किस तरह से पेश कर सकता है, यह साहिर साहब से बेहतर भला कौन लिख सकता था भला! ऐसा लगता है जैसे साहिर साहब ने अपने ख़ुद के जज़्बात इस गाने में भर दिए हो! “कौन कहता है के चाहत पे सभी का हक़ है, तू जिसे चाहे तेरा प्यार उसी का हक़ है, मुझसे कहदे मैं तेरा हाथ किसे पेश करूँ, ये मुरादों की हसीं रात किसे पेश करूँ”। रफ़ी साहब की आवाज़ में इस ग़ज़ल को थोड़े अलग अंदाज़ में साहिर और मदन साहब ने पेश किया था लता जी की आवाज़ में भी जिसके बोल हैं “नग़मा-ओ-शेर की सौग़ात किसे पेश करूँ, ये छलकते हुए जज़्बात किसे पेश करूँ”। रफ़ी साहब और लता जी के गाये इस ग़ज़ल को सुनकर यह बताना मुश्किल है कि कौन किससे बेहतर है। लता जी की आवाज़ में इसे हम आप तक फिर कभी पहुँचाने की कोशिश करेंगे, लेकिन आज लता जी के उद्गार हम आप तक ज़रूर पहुँचा सकते हैं जो उन्होने रफ़ी साहब के बारे में कहा था अमीन सायानी साहब के एक इंटरव्यू में – “रफ़ी साहब बहुत सीधे आदमी थे, बहुत ही सीधे, और उनके मन में कोई छल कपट नहीं था। वो जब बात करते थे तो बहुत सीधे, और बात बहुत कम करते थे। जब कभी मिलते थे तो दो चार शब्द बोल कर चुप हो जाते थे। अच्छा, उनको कभी ग़ुस्सा भी आता था तो ग़ुस्सा भी पता चल जाता था कि इस वक़्त वो नाराज़ हैं। एक दिन मुझे मिले और ‘रिकॉर्डिंग’ मेरी हो रही थी। तो उस ज़माने में मैने मेहदी हसन साहब को सुना था और मुझे बहुत अच्छे लगते थे गानें उनके। तो मैं कभी ‘रिकॉर्डिंग’ में उनका कोई गाना गुनगुना रही थी ऐसे ही, तो उन्होने सुन लिया था। तो मेहदी साहब आये बम्बई, और पता चला उनको कि मेहदी हसन आये हैं, तो रफ़ी साहब आये तो उनको ग़ुस्सा आया हुआ था किसी बात पर, तो मुझे कहने लगे कि ‘हाँ अभी सुनिए जाके उनको, वो आये हैं ना जिनका गाना आप को बहुत पसंद है’। मैने कहा कि ‘रफ़ी साहब, आप को क्या तक़लीफ़ है, आप क्यों इस तरह जल के बात कर रहें हैं?’ ‘नहीं नहीं नहीं, आप सुनिये ना, आप को तो उनके गानें बहुत अच्छे लगते हैं’। मैने कहा ‘अच्छे लगते हैं, आप के भी गानें अच्छे लगते हैं’. ‘नहीं नहीं, हमारा क्या है, हम तो फ़िल्मों में गाते हैं’। पर ये था कि मन में कुछ नहीं था। वो दिल के बहुत साफ़ आदमी थे। और किसी बात का शौक नहीं, मैने आप को पहले भी एक मरतबा बताया था कि कोई पान, तम्बाकू, शराब, सिगरेट, कुछ नहीं। सिर्फ़ खाने का शौक था। यह भी मैने सुना था उनके घर में एक दिन कि कभी कभी रात को आते हैं तो फ़्रिज खोल कर जो भी मिलता है खा लेते हैं। पर जितने बीमार थे किसी को नहीं बताते थे। उनको बहुत प्रेशर की तक़लीफ़ थी, कभी कभी ‘रिकॉर्डिंग’ में पता चलता था, उनकी शक्ल बदल जाती थी, पर बताते नहीं थे, गाते रहते थे। और अमीन साहब, कभी कभी इतने अच्छे लोगों के साथ भी कुछ ऐसे लोग मिलते हैं, घरवाले, कि उनकी तरफ़ किसी का ध्यान नहीं था, उन्हे किसी ने सम्भाला नहीं, नहीं तो रफ़ी साहब और देर तक रहते!” रफ़ी साहब आज ज़रूर हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी आवाज़ के विविध रंग और उनका नूर हमेशा हमेशा फ़िल्म संगीत के ख़ज़ाने को चमकाता रहेगा, रंगीन करता रहेगा, सुनिये “रंग और नूर की बारात किसे पेश करूँ”। हम भी पेश कर रहे हैं रफ़ी साहब की प्रतिभा को श्रद्धांजली।
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला “ओल्ड इस गोल्ड” गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा दूसरा (पहले गेस्ट होस्ट हमें मिल चुके हैं शरद तैलंग जी के रूप में)”गेस्ट होस्ट”. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
1. एक मासूम सा प्रेम गीत रफी साहब का गाया.
2. कलाकार हैं -“राजेंद्र कुमार”.
3. मुखड़े में शब्द है – “नाराज़”.
सुनिए/ सुनाईये अपनी पसंद दुनिया को आवाज़ के संग –
गीतों से हमारे रिश्ते गहरे हैं, गीत हमारे संग हंसते हैं, रोते हैं, सुख दुःख के सब मौसम इन्हीं गीतों में बसते हैं. क्या कभी आपके साथ ऐसा नहीं होता कि किसी गीत को सुन याद आ जाए कोई भूला साथी, कुछ बीती बातें, कुछ खट्टे मीठे किस्से, या कोई ख़ास पल फिर से जिन्दा हो जाए आपकी यादों में. बाँटिये हम सब के साथ उन सुरीले पलों की यादों को. आप टिपण्णी के माध्यम से अपनी पसंद के गीत और उससे जुडी अपनी किसी ख़ास याद का ब्यौरा (कम से कम ५० शब्दों में) हम सब के साथ बाँट सकते हैं वैसे बेहतर होगा यदि आप अपने आलेख और गीत की फरमाईश को hindyugm@gmail.com पर भेजें. चुने हुए आलेख और गीत आपके नाम से प्रसारित होंगें हर माह के पहले और तीसरे रविवार को “रविवार सुबह की कॉफी” शृंखला के तहत. आलेख हिंदी या फिर रोमन में टंकित होने चाहिए. हिंदी में लिखना बेहद सरल है मदद के लिए यहाँ जाएँ. अधिक जानकारी ये लिए ये आलेख पढें.
पिछली पहेली का परिणाम –
४४ अंकों के साथ स्वप्न जी मंजिल के और करीब आ चुकी है. दूर दूर तक आपका कोई प्रतिद्वंधी नहीं है. बहुत बधाई. मनु जी, पराग जी, शमिख जी और शरद जी आप सब से भी अनुरोध है कि रक्षा बंधन से जुडी अपनी यादें और पसंद के गीत हमें जल्द से जल्द लिख कर भेजें. शुरुआत आप सब खुद से कीजिये बाद में अपने साथियों को भी जोडीये, यकीन मानिये ये एक बहुत अच्छा आयोजन साबित होगा.
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
