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आशा भोसले और मोहम्मद रफी |
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इकबाल बानो, उस्ताद अख्तर अली और ज़ाकिर अली खाँ |
‘रेडियो
प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी
श्रृंखला “फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी” की इस आठवीं कड़ी
में मैं कृष्णमोहन मिश्र अपनी सहयोगी संज्ञा टण्डन के साथ आप सभी
संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। पिछली श्रृंखला की भाँति इस
श्रृंखला में भी हम एक नया प्रयोग कर रहे हैं। गीतों का परिचयात्मक आलेख
हमारे सम्पादक-मण्डल की सदस्य संज्ञा टण्डन ने प्रस्तुत किया है। आपको
हमारा यह प्रयोग कैसा लगा, अवश्य सूचित कीजिएगा। दरअसल यह श्रृंखला पूर्व
में प्रकाशित / प्रसारित की गई थी। हमारे पाठकों / श्रोताओं को यह श्रृंखला
सम्भवतः कुछ अधिक रुचिकर प्रतीत हुई थी। अनेक संगीत-प्रेमियों ने इसके
पुनर्प्रसारण का आग्रह किया है। सभी सम्मानित पाठकों / श्रोताओं के अनुरोध
का सम्मान करते हुए और पूर्वप्रकाशित श्रृंखला में थोड़ा परिमार्जन करते हुए
यह श्रृंखला हम पुनः प्रस्तुत कर रहे हैं। हमारी नई लघु श्रृंखला “फिल्मों
के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी” के शीर्षक से ही यह अनुमान हो गया
होगा कि इस श्रृंखला का विषय फिल्मों में शामिल की गई उपशास्त्रीय गायन
शैली ठुमरी है। सवाक फिल्मों के प्रारम्भिक दौर से फ़िल्मी गीतों के रूप में
तत्कालीन प्रचलित पारसी रंगमंच के संगीत और पारम्परिक ठुमरियों के सरलीकृत
रूप का प्रयोग आरम्भ हो गया था। विशेष रूप से फिल्मों के गायक-सितारे
कुन्दनलाल सहगल ने अपने कई गीतों को ठुमरी अंग में गाकर फिल्मों में ठुमरी
शैली की आवश्यकता की पूर्ति की थी। चौथे दशक के मध्य से लेकर आठवें दशक के
अन्त तक की फिल्मों में सैकड़ों ठुमरियों का प्रयोग हुआ है। इनमे से अधिकतर
ठुमरियाँ ऐसी हैं जो फ़िल्मी गीत के रूप में लिखी गईं और संगीतकार ने गीत को
ठुमरी अंग में संगीतबद्ध किया। कुछ फिल्मों में संगीतकारों ने परम्परागत
ठुमरियों का भी प्रयोग किया है। इस श्रृंखला में हम आपसे ऐसी ही कुछ
चर्चित-अचर्चित फ़िल्मी ठुमरियों पर बात करेंगे। आज के अंक हम आपको राग पीलू
की एक परम्परागत ठुमरी पहले सुविख्यात गायिका इकबाल बानो की आवाज़ में, फिर
यही ठुमरी उस्ताद अख्तर अली और ज़ाकिर अली खाँ के युगल स्वर में सुनेंगे।
इसी ठुमरी का राग देश में प्रयोग 1964 की प्रदर्शित फिल्म – “मैं सुहागन
हूँ” में संगीतकार लच्छीराम तँवर ने मोहम्मद रफी और आशा भोसले की युगल स्वर
में किया था।
के 341वें अंक की संगीत पहेली में आज हम आपको एक और फिल्मी ठुमरी गीत का
अंश सुनवा रहे हैं। गीत के इस अंश को सुन कर आपको निम्नलिखित तीन में से
किन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। यदि आपको तीन में से केवल एक ही
उत्तर ज्ञात हो तो भी आप प्रतियोगिता में भाग ले सकते हैं। इस वर्ष के
अन्तिम अंक के ‘स्वरगोष्ठी’ तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे,
उन्हें इस वर्ष के पाँचवें सत्र का विजेता घोषित किया जाएगा।
में दिये गए उत्तर मान्य हो सकते हैं, किन्तु उसका प्रकाशन पहेली का उत्तर
देने की अन्तिम तिथि के बाद किया जाएगा। विजेता का नाम हम उनके शहर,
प्रदेश और देश के नाम के साथ ‘स्वरगोष्ठी’ के 343वें अंक में
प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग, अथवा कलासाधक के
बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना
चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे
दिये गए COMMENTS के माध्यम से तथा swargoshthi@gmail.com अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।
की 339वीं कड़ी की पहेली में हमने आपको वर्ष 1938 में प्रदर्शित फिल्म –
“स्ट्रीट सिंगर” से ली गई ठुमरी का अंश सुनवा कर हमने आपसे तीन में से
किन्हीं दो प्रश्नों का उत्तर पूछा था। पहले प्रश्न का सही उत्तर है, राग भैरवी, दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है, ताल – कहरवा और तीसरे प्रश्न का सही उत्तर है, स्वर – कुन्दनलाल सहगल।
ने भी तीनों प्रश्नों के सही उत्तर दिये हैं। हम उनका हार्दिक स्वागत करते
हैं। आशा है कि हमारे अन्य पाठक / श्रोता भी नियमित रूप से साप्ताहिक
स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ का अवलोकन करते रहेंगे और पहेली प्रतियोगिता में भाग
लेंगे। उपरोक्त सभी प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से
हार्दिक बधाई।
‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ पर जारी हमारी
श्रृंखला “फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी” की इस आठवीं कड़ी
में आपने राग पीलू की एक पारम्परिक ठुमरी को गायिका इक़बाल बानो और उस्ताद
अख्तर अली तथा ज़ाकिर अली खाँ के स्वर में रसास्वादन किया। इसी ठुमरी के
फिल्मी रूप का राग देश में गायन मोहम्मद रफी और आशा भोसले के स्वर में
आनन्द लिया।
“स्वरगोष्ठी” 338वें अंक की पहेली के बारे टिप्पणी करते हुए
हमारे एक पाठक Janardan Murhekar ने लिखा है – “लताजी
द्वारा गाये “सौतेला भाई” के इस गीत ने मुझे अरसे से मोहित किया है। कब तक
हंसध्वनि राग मे यह गीत बाँधा गया है, ऐसा मै समझता था। कृपया प्रकाश
डालें।”
के विभिन्न ग्रन्थों और विद्वानों के अनसार राग हंसध्वनि और अड़ाना में
पर्याप्त अन्तर होता है। मूलतः कर्नाटक पद्यति के राग हंसध्वनि में सभी
शुद्ध स्वर प्रयोग किये जाते हैं। इस राग में मध्यम और धैवत स्वरों का प्रयोग
नहीं होता। राग की जाति औड़व-औड़व है। जबकि राग अड़ाना में गान्धार और धैवत
स्वर कोमल और दोनों निषाद स्वर का प्रयोग होता है। आरोह में गान्धार वर्जित
और अवरोह में वक्र प्रयोग होता है। इस राग की जाति षाडव-सम्पूर्ण होती है।
आशा है, जनार्दन जी सन्तुष्ट हो गए होंगे। ”
आपके अनुरोध पर
पुनर्प्रसारित इस श्रृंखला के अगले अंक में भी हम आपसे एक और पारम्परिक
ठुमरी और उसके फिल्मी रूप पर चर्चा करेंगे और शास्त्रीय और उपशास्त्रीय
संगीत और रागों पर चर्चा करेंगे और सम्बन्धित रागों तथा संगीत शैली में
निबद्ध कुछ रचनाएँ भी प्रस्तुत करेंगे। हमारी आगामी श्रृंखलाओं के लिए
विषय, राग, रचना और कलाकार के बारे में यदि आपकी कोई फरमाइश हो तो हमें swargoshthi@gmail.com पर अवश्य लिखिए। अगले अंक में रविवार को प्रातः 8 बजे हम ‘स्वरगोष्ठी’ के इसी मंच पर सभी संगीत-प्रेमियों का स्वागत करेंगे।
आलेख व प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र
रेडियो प्लेबैक इण्डिया