कहकशाँ – 14
मदन मोहन पर केन्द्रित ’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के अन्य कई स्तंभों में बहुत से लेख अब तक प्रकाशित हो चुके हैं और आगे भी होते रहेंगे। उनके जीवन से जुड़ी घटनाएँ, उनके तमाम गीतों के बनने की कहानियाँ, उनके शास्त्रीय राग आधारित गीतों की चर्चा, ये सब समय-समय पर पेश होते रहे हैं, आगे भी होते रहेंगे। इसलिए ’कहकशाँ’ की आज की महफ़िल में मदन जी के बारे में कुछ कहे बग़ैर ही हम रुख़ कर लेते हैं उन दो ग़ज़लों की तरफ़ जिन्हें आज हम आपको सुनवाने के लिए लाये हैं। इन ग़ज़लों की ख़ासियत यह है कि इन्हें मदन मोहन ने गाया भी है। ये उनके संगीत सफ़र के शुरुआती दिनों की बात है; उन दिनों मदन मोहन को गायिकी का बहुत शौक़ं था और वो गाते भी बहुत ख़ूबसूरत थे। 1947 में उन्हें अपनी आवाज़ में पहली बार दो ग़ज़लें रेकॉर्ड करवाने का मौक़ा मिला जिन्हें लिखे थे बेहज़ाद लखनवी ने। ये दो ग़ज़लें थीं “आने लगा है कोई नज़र जलवा गर मुझे” और “इस राज़ को दुनिया जानती है”। इसके अगले ही साल, 1948 में उनकी आवाज़ में दो और निजी ग़ज़लें रेकॉर्ड हुई थीं दीवान शरार की लिखी हुईं – “दुनिया मुझे कहती है कि मैं तुझको भूला दूँ” और “तुम क्यों मेरी महफ़िल में इठलाते हुए आए”। तो पहली ग़ज़ल पेश-ए-ख़िदमत है…
दूसरी ग़ज़ल सुनवाने से पहले दीवान शरार के बारे में चन्द बातें बताना ज़रूरी है। 1899 में जन्मे दीवान शरार केवल हिन्दी या उर्दू के शायर ही नहीं थे, बल्कि अंग्रेज़ी में उपन्यास, लघु कहानियाँ, स्टेज व रेडियो नाटक लिखने के लिए मशहूर थे। फ़िल्म और थिएटर में अभिनय भी करते थे। भारतीय सिनेमा में निर्माता, चरित्र अभिनेता तथा कहानीकार व संवाद लेखक के रूप में कार्य किया। मुल्तान में उनका जन्म हुआ था एक ऐसे परिवार में जो उस ज़माने के रियासतों में दीवान (मन्त्री) की भूमिका निभाते थे। 1929 में उन्होंने एक फ़िल्म-निर्माण व वितरण कंपनी की स्थापना की और उर्दू की पहली फ़िल्मी पत्रिका ’शबिस्तान’ को सम्पादित करने लगे। 1933 में हिमांशु राय की चर्चित इन्डो-ब्रिटिश फ़िल्म ’कर्म’ को पूरा करने के लिए वो लंदन गए (इस फ़िल्म की कहानी उन्होंने लिखी थी)। लंदन में रहते उनकी कई भारत की पृष्ठभूमि पर लिखी कई अंग्रेज़ी कहानियाँ प्रकाशित हुईं। BBC के लिए कई अंग्रेज़ी रेडियो नाटक लिखे। द्वितीय विश्व युद्ध के छिड़ जाने पर 1939 में वो भारत वापस आकर पहले दिल्ली में फिर बम्बई में रेडियो से जुड़ गए। उसके बाद वी. शान्ताराम के साथ हो लिए जिनके लिए कालीदास की अमर कृति ’शकुन्तला’ को फ़िल्म को रुपहले परदे पर साकार किया। 1943 की फ़िल्म ’इशारा’ दीवान शरार की लिखी अंग्रेज़ी उपन्यास ’The Gong of Shiva’ पर आधारित थी जिस फ़िल्म ने पृथ्वीराज कपूर को अपार शोहरत दिलाई। 1969 में दीवान शरार का निधन हो गया। तो आइए अब आज की महफ़िल की दूसरी ग़ज़ल सुनते हैं मदन मोहन की आवाज़ में – “तुम क्यों मेरी महफ़िल में इठलाते हुए आए…”।
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