कहानी हक़ीक़त ना होकर कोई सपना हो। ऐसी ही कहानी है अभिनेता सुपरस्टार धर्मेन्द्र की। पंजाब के लुधियाना ज़िले के एक छोटे से गाँव नसरली में एक बहुत ही साधारण परिवार में जन्म हुआ धरम सिंह देओल का। पिता केवल किशन सिंह देओल एक स्कूल हेडमास्टर थे। ऐसे परिवार का बेटा अगर फ़िल्मों में जाना चाहे तो घर पर क्या माहौल होगा इसका अन्दाज़ा लगाना मुश्किल काम नहीं। धरम सिंह के पिता भी अन्य पिताओं की तरह अपने बेटे के लिए उच्च शिक्षा के सपने देखते थे। लेकिन धरम की कोमल आँखें एक असंभव स्वप्न देखने लगीं। उनके दिमाग़ में एक अभिनेता बनने का ख़याल घर कर गई। बिना कुछ सोचे-समझे वो अपने इस सपने में तरह तरह के रंग भरने लगे। उन दिनों एक सामान्य परिवार के लड़के के लिए फ़िल्मों में प्रवेश करना आसान काम नहीं था। पर जिसकी हर साँस में फ़िल्मों की ख़ुशबू समाया हो, उसे कोई कब तक रोक सकता है भला! कक्षा-VIII तक धरम ने कोई फ़िल्म ही नहीं देख रखी थी। फ़िल्म और सिनेमा उनके लिए किसी स्वपनलोक से कम नहीं था। माता-पिता बेहद सख़्त होने की वजह से उन्हें फ़िल्म देखने की अनुमति नहीं थी। एक बार जब उनके दोस्त एक फ़िल्म देख कर वापस आकर बहुत उत्तेजित दिख रहे थे, तब धरम ने उनसे पूछा कि आख़िर फ़िल्म में होता क्या है? उनके दोस्त ज़्यादा कुछ बता तो नहीं सके, बस इतना कहा कि फ़िल्म में तसवीरें बोलती हैं! कक्षा-IX में पहुँचने पर उन्हें ’शहीद’ फ़िल्म देखने की घर से अनुमति मिली। उसमें दिलीप कुमार का अभिनय देख कर धरम सिंह देओल हैरान रह गए। उन्होंने सोचा, “ये सुन्दर जगत भला कौन सा है? यह स्वर्ग कहाँ स्थित है? मैं भी उसका हिस्सा बनना चाहता हूँ!” जैसे जैसे वो जवान होते गए, फ़िल्मों का नशा उनके सर चढ़ कर बोलने लगा।
एक बार उन्हें ख़बर मिली कि ’फ़िल्मफ़ेअर’ कंपनी एक ’टैलेण्ट हण्ट’ प्रतियोगिता करने वाली है नए चेहरों के
लिए। अपने पिता से छुपा कर, लेकिन अपनी माँ को बता कर, धरम ने फ़िल्मफ़ेअर का फ़ॉर्म भर दिया और बम्बई के लिए पोस्ट कर दिया। पंजाब दा गबरू जवान होने की वजह से प्रथम दौर में उनका चुनाव होना तो लाज़मी था। बुलावा आया बम्बई से प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए। और क़िस्मत का खेल ही कहिए, या उनका रूप-रंग, या अभिनय के लिए उनकी तड़प, धरम सिंह देओल वह प्रतियोगिता जीत गए। लेकिन महज़ यह प्रतियोगिता जीतने की वजह से उनके पीछे निर्माताओं की लाइन नहीं लग गई। अब बारी थी उनके फ़िल्म जगत में दाख़िले के संघर्ष की। पंजाब के उस हरियाली भरे स्वस्थ वातावरण से सीधे बम्बई के दूषित और अपरिचित वातावरण में घुल-मिल जाने के लिए उन्हें काफ़ी वक़्त लगा। उपर से आर्थिक संकट। बहुत से दिन ऐसे गुज़रे जब उन्हें पेट भर खाना तक नसीब न हुआ। केवल पानी पी कर न जाने कितनी रातों को वो सो गए! दिन में स्टुडियोज़ के चक्कर, निर्माताओं से गुज़ारिश, अनुनय-विनय, और रात को फिर से वही ख़्वाब, वही सपना, जो उन्हें थकने नहीं देता था। पैसों की कमी की वजह से कई बार उनके लिए स्टुडियो जाना तक संभव नहीं होता था। एक बार उन्हें ऑडिशन के लिए बुलाया गया, पर जब निर्माता ने ऑडिशन के बाद उनके टैक्सी का किराया देने से इनकार कर दिया, तो वो बहुत नाराज़ हुए थे। ऐसे में शशि कपूर, जो वहाँ मौजूद थे, उन्होंने धरम को अपने साथ अपने घर ले गए और उन्हें भर पेट खाना भी खिलाया। एक वर्ष तक इस तरह की उधार की ज़िन्दगी जीने के बाद ज़िन्दगी मुस्कुराई और उन्हें उनकी पहली फ़िल्म मिली ’दिल भी तेरा हम भी तेरे’। और धरम सिंह देओल बन गए धर्मेन्द्र। बाकी इतिहास है! धरमेन्द्र की यह कहानी हमें यह सिखाती है कि कोई असंभव सपना देखना कोई बुरी बात नहीं। पर उस सपने को साकार करने के लिए मन में दृढ़ संकल्प, आत्मविश्वास और मेहनत करने का जसबा होना चाहिए, फिर सफलता झक मार कर क़दम चूमेगी!