कैलाश खेर आज भी जब मुंबई के अंधेरी रेल्वे स्टेशन से गुज़रते हैं तो उनके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। “मैं इस प्लैटफ़ॉर्म पर रहता था और यहाँ का एक चायवाला मेरा अच्छा दोस्त हुआ करता था”, कैलाश ने बताया। बालावस्था में अपने जन्मस्थान मेरठ से कैलाश भाग कर दिल्ली आ गए थे एक अच्छे गुरु की तलाश में जिनसे वो संगीत सीख सके। लगभग पंद्रह अलग शिक्षकों से उन्होंने संगीत की तालिम ली पर कोई भी उनकी प्यास न बुझा सके। और ना ही उन्हें और उनकी गायकी को किसी ने तवज्जो दी। घर से भाग जाने की वजह से वापस लौटने का सवाल ही नहीं था उनके मन में। आख़िरकार निराशा उन्हें मुंबई खींच लाई। मुंबई में भी उस समय जिस तरह के गायकी का चलन था, उसमें उनकी आवाज़ को स्वीकारने में किसी संगीतकार या निर्माता ने रुचि नहीं दिखाई। हताशा उनके मन में घर कर गई। अब तक उनका परिवार भी मेरठ से नई दिल्ली स्थानान्तरित हो चुका था। परिवार ने उन्हें वापस घर चले आने को कहा, और उन्हें पारिवारिक व्यावसाय (साड़ियों का निर्यात) में भाग लेने का सुझाव दिया। लेकिन इसमें भी वो असफल रहे। जब मन संगीत के समुद्र में ग़ोते लगा रहा हो तो फिर किसी और व्यावसाय में मन कैसे लगाया जा सकता है भला! दो वर्षों तक बिना कुछ किए वो घर बैठे रहे। परिवार वाले भी उनसे सारी उम्मीदें खो चुके थे। उन्हें डर होने लगा था कि कहीं बेटा ग़लत राह पर ना चले या हताशा में कोई ग़लत क़दम ना उठा ले।
इसे अपने पर भरोसा ही कह लीजिए या ईश्वर की इच्छा, कैलाश खेर अपने आप को एक अन्तिम मौका देना चाहते थे। इसलिए वो आख़िरी बार के लिए फिर एक बार मुंबई माया नगरी जा पहुँचे। उनके मन में यह था कि अगर इस बार भी फ़ेल हो गए तो फिर क्या होगा! अब तक कैलाश के मुंबई में कुछ मित्रगण बन चुके थे जिनमें से किसी किसी का फ़िल्मों से नाता था। ऐसे ही एक मित्र ने उनके नाम की सिफ़ारिश संगीतकार राम सम्पत से की क्योंकि उन दिनों राम सम्पत एक ऐसे गायक की तलाश कर रहे थे जिनकी बिल्कुल अलग क़िस्म की आवाज़ हो। नक्षत्र कंपनी के विज्ञापन के लिए यह आवाज़ चाहिए थी। इस विज्ञापन में गाकर कैलाश खेर को कोई प्रसिद्धी तो नहीं मिली पर अपनी ज़िन्दगी का पहला मेहनताना 5000 रुपय के रूप में ज़रूर मिली जिसने उनकी उर्जा और आत्मविश्वास को कई गुना बढ़ा दिया। इसके बाद वो एक के बाद एक कई जिंगल्स गाए जिनसे उन्हें मुंबई में टिके रहने के लिए आर्थिक सहायता मिली। साथ ही वो स्टुडियोज़ के चक्कर लगाने लगे, लोगों से मिलने लगे, अपने परिचय को थोड़ा-थोड़ा लोगों तक पहुँचाने लगे। बिना किसी सिफ़ारिश या गॉदफ़ादर के कैलाश खेर का संघर्ष चलता रहा। वर्ष 2003 में फ़िल्म ’अंदाज़’ के एक गीत के शुरुआती पंक्ति के लिए नदीम-श्रवण को एक अलग तरह की आवाज़ की ज़रूरत थी। “रब्बा इश्क़ ना होवे”, इस गीत में सोनू निगम, अलका याज्ञ्निक और सपना मुखर्जी की मुख्य आवाज़ों के साथ-साथ कैलाश ने भी शुरुआत की एक पंक्ति गाए। इसी साल फ़िल्म ’वैसा भी होता है भाग-II’ के लिए कैलाश ने “अलाह के बन्दे” गीत गाया। शुरू शुरू में फ़िल्म पिट जाने की वजह से इस गीत के तरह भी किसी का ध्यान नहीं गया। इसी 2003 में उन्हें शाहरुख़ ख़ान की फ़िल्म ’चलते चलते’ में एक गीत गाने का मौक़ा दिया संगीतकार आदेश श्रिवास्तव ने। पर कैलाश खेर की क़िस्मत अब भी उनसे नाराज़ ही थी। यह गीत कैलाश की आवाज़ में रेकॉर्ड होने के बावजूद जब कैसेट और सीडी रिलीज़ हुए, तब उनमें आवाज़ थी सुखविन्दर सिंह की। इस गीत से कैलाश खेर को बहुत सारी उम्मीदें थीं। ख़ैर, जो होना था सो हो गया। लेकिन “अल्लाह के बन्दे” गीत, जिसकी तरफ़ कैलाश का भी ज़्यादा ध्यान नहीं गया था, इस गीत के लोकप्रियता की सीढ़ियाँ चढ़नी शुरू कर दी। और सबको चकित करते हुए लगातार छह महीनों तक यह गीत लगभग सभी म्युज़िक चैनलों के हिट परेड कार्यक्रमों में शिखर पर टिका रहा। और इस तरह से कैलाश खेर ने देखी सफलता की पहली किरण। और इसके बाद उन्हें कभी पीछे मुड़ कर देखने की ज़रूरत नहीं पड़ी। न केवल फ़िल्मों में उन्हें एक के बाद एक गीत गाने के मौके मिले, ग़ैर फ़िल्मी संगीत में भी उनका दबदबा बना। उनके अन्दर जो सादगी है, वही सादगी उनकी आवाज़ और गीतों में भी झलकती है। कैलाश खेर की प्रतिभा, लगन और संघर्ष को सलाम करते हैं हम!