कहकशाँ – 3
पाने को मुझको हो चला है इश्क़ सरफ़रोश।
इश्क़ वो बला है जो कब किस दिशा से आए, किसी को पता नहीं होता। इश्क़ पर न जाने कितनी ही तहरीरें लिखी जा चुकी हैं, लेकिन इश्क़ को क्या कोई भी अब तक जान पाया है। पहली नज़र में ही कोई किसी को कैसे भा जाता है, कोई किसी के लिए जान तक की बाज़ी क्यों लगा देता है और तो और इश्क़ के लिए कोई ख़ुद की हस्ती तक को दाँव पर लगा देता है। आखिर ऐसा क्यों है? अगर इश्क़ के असर पर ग़ौर किया जाए तो यह बात सभी मानेंगे कि इश्क़ इंसान में बदलाव ला देता है। इंसान ख़ुद के बनाए रस्तों पर चलने लगता है और ख़ुद के बनाए इन्हीं रस्तों पर ख़ुदा मिलते हैं। कहते भी हैं कि “जो इश्क़ की मर्जी वही रब की मर्ज़ी”। तो फिर ऐसा क्यों है कि इन ख़ुदा के बंदों से कायनात की दुश्मनी ठन जाती है? तवारीख़ गवाह है कि जिसने भी इश्क़ की निगेहबानी की है, उसके हिस्से में संग (पत्थर) ही आए हैं। सरफ़रोश इश्क़ इंसान को सरफ़रोश बना कर ही छोड़ता है, वहीं दूसरी ओर ख़ुदा के रसूल ही ख़ुदा के शाहकार को पाप का नाम देने लगते हैं:
संग-दिल जहाँ मुझसे भले ही अलहदा रहे,
काफ़ी है कि मेरी तरफ बस वो खु़दा रहे।
बेग़म आबिदा परवीन, जिनके लिए सितारा-ए-इम्तियाज़ की उपाधि भी छोटी है, की आवाज़ में ख़ुदावंद ने एक अलग ही कशिश डाली है। आईये अब हम इन्हीं की पुरकशिश आवाज़ में कराची के हकीम नसीर की लिखी ग़ज़ल सुनते हैं।
गुज़रे पहर में रात ने जो ख़्वाब क़त्ल किये,
अच्छा है उनको भूलना, शब भर न वे जिये।
इंसान ईश्वर का सबसे पेंचीदा आविष्कार है। वह वर्तमान में जीता है, भविष्य के पीछे भागता है और भूत की होनी-अनहोनी पर सर खपाता रहता है। ना ही वह माज़ी का दामन छोड़ता है और ना ही मुस्तकबिल से नज़रें हटाता है। इसी माज़ी-मुस्तकबिल के पेंच में उलझा वह मौजूद की बलि देता रहता है। वह जब किसी की चाह पाल लेता है तो या तो उसे पाकर ही दम लेता है या फिर हरदम उसी की राह जोहता रहता है। और वही इंसान अगर इश्क़ के रास्ते पर हो तो उसे एक ही मंज़िल दिखती है, फिर चाहे वह मंजिल कितनी भी दूर क्यों न हो या फिर उस रास्ते की कोई मंजिल ही न हो। वह उसी रास्ते पर मुसलसल चलता रहता है, ना ही वह मंजिल को भूलता है और ना ही रास्ता बदलता है। उस नासमझ को इस बात का इल्म नहीं होता कि “जिस तरह दुनिया बेहतरी के लिए बदलती रही है, उसी तरह इंसान से भी फ़िज़ा यही उम्मीद करती है कि वह बेहतरी के लिए बदलता रहे।” कहा भी गया है कि “छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए, यह मुनासिब नहीं आदमी के लिए”। काश यह बात हर इंसान की समझ में आ जाए!
शिकवा क्यों अपने-आप से, ग़र पास सब न हो,
क़िस्मत में मोहतरम के भी मुमकिन है रब न हो।
मौजूदा गज़ल में अमज़द इस्लाम ’अमज़’ कहते हैं –
“कहाँ आके रूकने थे रास्ते, कहाँ मोड़ था उसे भूल जा,
वो जो मिल गया उसे याद रख, जो नहीं मिला उसे भूल जा।”
ग़ज़ल सम्राट ग़ुलाम अली की आवाज़ ने इस ग़ज़ल को दर्द से सराबोर कर दिया है। आईये हम और आप मिलकर इस दर्द-ए-सुखन का लुत्फ उठाते हैं।
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प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र