कहकशाँ – 4
बात इतनी-सी है कि दिन जलाने के लिए सूरज को जलना ही पड़ता है। अब फ़र्क इतना ही है कि वह सूरज ता-उम्र, ता-क़यामत ख़ुद को बुलंद रख सकता है, लेकिन एक अदना-सा-इंसान ऐसा कर सके, यह मुमकिन नहीं। जलना किसी की भी फितरत में नहीं होता, लेकिन कुछ की किस्मत ही गर्म सुर्ख लोहे से लिखी जाती है, फिर वह जले नहीं तो और क्या करे! वही कुछ को अपनी आबरू आबाद रखने के लिए अपनी हस्ती को आग के सुपूर्द करना होता है। यारों, इश्क़ एक ऐसी ही किस्मत है, जो नसीब से नसीब होती है, लेकिन जिनको भी नसीब होती है, उनकी हस्ती को मु्ज़्तरिब कर जाती है। जिस तरह सूरज ज़मीं के लिए जलता है, उसी तरह इश्क़ में डूबा शख़्स अपने महबूब या महबूबा के लिए सारे दर्द-औ-ग़म सहता रहता है। और ये दर्द-ओ-ग़म उसे कहीं और से नहीं मिलते, बल्कि ये सारे के सारे इसी जहाँ के जहाँपनाहों के पनाह से ही उसकी झोली में आते हैं। सच ही है कि:
राह-ए-मोहब्बत के अगर मंज़िल नहीं ग़म-ओ-अज़ल,
जान लो हाजी की क़िस्मत में नहीं ज़मज़म का जल।
अपने ज़माने के मशहूर शायर शक़ील बदायूंनी इन इश्क़-वालों का हाले-दिल बयां करते हुए कहते हैं:
“किनारों से मुझे ऐ नाख़ुदा दूर ही रखना,
वहाँ लेकर चलो तूफ़ाँ जहाँ से उठने वाला है।”
बेगम अख्तर ने इस ग़ज़ल में उस दर्द की कोई भी गुंजाइश नहीं छोड़ी मोहब्बत जिस दर्द की माँग करती है। सुनिए और ख़ुद महसूस कीजिए कि दर्द जब हर्फ़ों से छलके तो कैसी टीस उठती है।
यह मेरी हक़-परस्ती भी ना मेरे काम है आई,
जिसे ज़ाहिद कहा मैने, वो निकला रब का सौदाई।
आख़िर ऐसा क्यों होता है कि हम औरों से ईमान की बातें करते हैं और जब ख़ुद पर आती है तो ईमान से आँखें चुराने लगते हैं। हम वफ़ा के कसीदे पढ़ते हैं, तहरीरें लिख डालते हैं लेकिन हक़ीक़त में अपने पास वफ़ा को फटकने भी नहीं देते। हद तो तब हो जाती है जब हम महफ़िलों और मुशायरों में प्यार-मोहब्बत के रहनुमा नज़र आते हैं, लेकिन जब अपने घर का कोई प्यार की राह पर चल निकले तो शमशीर लेकर दरवाज़े पर जम जाते हैं। और यह नहीं है कि यह बस किसी-किसी के साथ होता है, यकीं मानिए यह हर किसी के साथ होता है। हर किसी के अंदर एक बगुला भगत होता है, एक ढोंगी निवास करता है। और यही एकमात्र रोग है, जिसने हर दौर में दुनिया का नाश किया है। सच यह नहीं है कि दुनिया इश्क़-वालों को नहीं समझती या समझना नहीं चाहती, सच यह है कि दुनिय ऐसी ही है और वह अगर इश्क़ का मतलब जान भी ले तो भी अपनी आदत से बाज़ नहीं आएगी। और यह आदत इसलिए भी है क्योंकि दुनिया का हर एक शख़्स ख़ुद को दूसरे से बड़ा और बेहतर साबित करने में लगा है। भाई, अगर दुनिया ऐसी ही है तो फ़िर इश्क़-वाले क्यों दूसरों की परवाह करें। जाँ अपनी, जाँनशीं अपनी, तो फिर फ़िक्र-ए-जहां क्यों हो?
जहाँ वालों की तल्ख़ी का नज़ारा कर लिया मैने,
मुझे ख़ुद पर गुमां है कि गुजारा कर लिया मैने।
यह बस इसी युग या इसी दौर की बात नहीं है। बरसों पहले नक़्श ल्यालपुरी ने दुनिया की इस तल्ख़ी को नज़र करके लिखा था:
दुनिया वालों कुछ तो मुझको मेरी वफ़ा की दाद मिले,
मैंने दिल के फूल खिलाए शोलों में, अंगारों में।
ख़य्याम के संगीत से सजी यह ग़ज़ल आशा भोसले की आवाज़ में चमक-सी उठती है। शब्दों के मोड़ पर गले की झनकार ने इसे एक अलग ही पहचान दे दी है। लीजिए आप ख़ुद ही इसका लुत्फ़ उठाइए।
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प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र