स्वरगोष्ठी – 242 में आज


स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी हमारी सुरीली श्रृंखला – ‘संगीत के
शिखर पर’ की तीसरी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सब संगीत-प्रेमियों का
एक बार पुनः स्वागत करता हूँ। इस श्रृंखला में हम भारतीय संगीत की विभिन्न
विधाओं में शिखर पर विराजमान व्यक्तित्व और उनकी प्रस्तुतियों की चर्चा
करेंगे। संगीत गायन और वादन की विविध लोकप्रिय शैलियों में किसी एक
शीर्षस्थ कलासाधक का चुनाव कर हम उनके व्यक्तित्व का उल्लेख और उनकी
कृतियों के उदाहरण प्रस्तुत करेंगे। आज श्रृंखला की दूसरी कड़ी में हमारा
विषय है, गजल गायकी और इस विधा में अत्यन्त लोकप्रिय रहे गायक जगजीत सिंह
और उनकी गजल, गीत और भजन की राग आधारित प्रस्तुतियाँ। आज के अंक में हम
जगजीत सिंह द्वारा प्रस्तुत राग दरबारी कान्हड़ा में निबद्ध एक द्रुत रचना,
राग भैरवी में ठुमरियाँ और राग दरबारी कान्हड़ा के स्वरों में एक कीर्तन
सुनवाएँगे।


राजस्थान के गंगानगर में हुआ था। पिता सरदार अमर सिंह धमानी सरकारी
कर्मचारी थे। जगजीत सिंह का परिवार मूलतः पंजाब के रोपड़ ज़िले के दल्ला
गाँव का रहने वाला है। उनकी प्रारम्म्भिक शिक्षा गंगानगर के खालसा स्कूल
में हुई और बाद में माध्यमिक शिक्षा के लिए जालन्धर आ गए। डी.ए.वी. कॉलेज
से स्नातक की शिक्षा पूर्ण की और इसके बाद कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय से
इतिहास में स्नातकोत्तर की शिक्षा प्राप्त की। जगजीत सिंह को बचपन मे अपने
पिता से संगीत विरासत में मिला था। गंगानगर मे ही पण्डित छगनलाल शर्मा से
दो साल तक शास्त्रीय संगीत सीखा। बाद में सेनिया घराने के उस्ताद जमाल खाँ
से ख्याल, ठुमरी और ध्रुवपद की बारीकियाँ सीखीं। आगे चल कर उन्होने ग़ज़ल
गायकी के क्षेत्र में कुछ नये प्रयोग कर संगीत की इसी विधा में आशातीत
सफलता प्राप्त की, परन्तु जब भी उन्हें अवसर मिला, अपनी शास्त्रीय संगीत
शिक्षा को अनेक संगीत सभाओं में प्रकट किया। जगजीत सिंह द्वारा प्रस्तुत
किये गए अधिकतर ग़ज़लों, गीतों और भजनों में रागों का स्पर्श स्पष्ट
परिलक्षित होता है। राग दरबारी और भैरवी उनके प्रिय राग थे। आइए, आपको
सुनवाते हैं, जगजीत सिंह के स्वर में राग दरबारी, द्रुत एकताल में निबद्ध
एक खयाल रचना।


सिंह 1955 में मुम्बई आ गए। यहाँ से उनके संघर्ष का दौर आरम्भ हुआ। मुम्बई
में रहते हुए विज्ञापनों के लिए जिंगल्स गाकर, वैवाहिक समारोह अथवा अन्य
मांगलिक अवसरों पर गीत-ग़ज़लें गाकर अपना गुजर करते रहे। उन दिनों देश के
स्वतंत्र होने के बावजूद ग़ज़ल गायकी के क्षेत्र में दरबारी परम्परा कायम थी।
संगीत की यह विधा रईसों, जमींदारों और अरबी-फारसी से युक्त क्लिष्ट उर्दू
के बुद्धिजीवियों के बीच ही प्रचलित थी। जगजीत सिंह ने ग़ज़ल को इस दरबारी
परम्परा से निकाल कर जनसामान्य के बीच लोकप्रिय करने का प्रयत्न किया। उस
दौर में ग़ज़ल गायकी के क्षेत्र में नूरजहाँ, मलिका पुखराज, बेग़म अख्तर, तलत
महमूद और मेंहदी हसन जैसे दिग्गजॉ के प्रयत्नों से ग़ज़ल, अरबी और फारसी के
दायरे से निकल कर उर्दू के साथ नये अंदाज़ में सामने आने को बेताब थी। ऐसे
में जगजीत सिंह, अपनी रेशमी आवाज़, रागदारी संगीत का प्रारम्भिक प्रशिक्षण
तथा संगति वाद्यों में क्रान्तिकारी बदलाव कर इस अभियान के अगुआ बन गए। अब
आपको सुनवाने के लिए हमने चुना है, जगजीत सिंह की आवाज़ में दो ठुमरी
रचनाएँ। एक मंच प्रदर्शन के दौरान उन्होने पहले भैरवी के स्वरों में थोड़ा
आलाप किया, फिर बिना ताल के नवाब वाजिद आली शाह की रचना- ‘बाबुल मोरा नैहर
छूटो जाए…’ और फिर तीनताल में निबद्ध पारम्परिक ठुमरी भैरवी- ‘बाजूबन्द
खुल-खुल जाए…’ प्रस्तुत किया है। अन्त में उन्होने तीनताल में निबद्ध
तराना का एक अंश भी प्रस्तुत किया है। आइए सुनते हैं, जगजीत सिंह की
विलक्षण प्रतिभा का एक उदाहरण।
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पुत्र विवेक और पत्नी चित्रा सिंह के साथ |
जगजीत
सिंह ने ग़ज़लों को जब सरल और सहज अंदाज़ में गाना आरम्भ किया तो जनसामान्य
की अभिरुचि ग़ज़लों की ओर बढ़ी। उन्होने हुस्न और इश्क़ से युक्त पारम्परिक
ग़ज़लों के अलावा साधारण शब्दों में ढली आम आदमी की ज़िंदगी को भी अपने सुरों
से सजाया। जैसे- ‘अब मैं राशन की दुकानों पर नज़र आता हूँ..’, ‘मैं रोया
परदेश में…’, ‘ये दौलत भी ले लो…’, ‘माँ सुनाओ मुझे वो कहानी…’ जैसी
रचनाओं में आम आदमी को अपने जीवन का यथार्थ नज़र आया। प्राचीन ग़ज़ल गायन शैली
में केवल सारंगी और तबले की संगति का चलन था, किन्तु जगजीत सिंह ने सारंगी
का स्थान पर वायलिन और सन्तूर को अपनाया। उन्होने संगति वाद्यों में गिटार
को भी जोड़ा। ग़ज़ल को जनरुचि का हिस्सा बनाने के बाद 1981 में उन्होने फिल्म
‘प्रेमगीत’ से अपने फिल्मी गायन का सफर शुरू किया। इस फिल्म का गीत-
‘होठों से छू लो तुम मेरा गीत अमर कर दो…’ वास्तव में एक अमर गीत सिद्ध
हुआ। 1990
में एक सड़क दुर्घटना में जगजीत सिंह के इकलौते पुत्र विवेक का निधन हो
गया। इस रिक्तता की पूर्ति के लिए उन्होने अपनी संगीत-साधना को ही माध्यम
बनाया और आध्यात्मिकता की ओर मुड़ गए। इस दौर में उन्होने अनेक भक्त कवियों
के पदों सहित गुरुवाणी को अपनी वाणी दी। अब हम आपको जगजीत सिंह के स्वर में
एक भक्तिगीत सुनवा रहे हैं। यह भक्तिगीत कीर्तन शैली में प्रस्तुत किया
गया है। इस प्रस्तुति में भी आपको राग दरबारी कान्हड़ा की झलक मिलेगी। आप
जगजीत सिंह की आवाज़ में यह भक्तिगीत सुनिए और मुझे आज के इस अंक को यहीं
विराम देने की अनुमति दीजिए।
के 242वें अंक की संगीत पहेली में आज हम आपको भारतीय संगीत के एक सम्मानित
गायक की आवाज़ में प्रस्तुत कण्ठ-संगीत का एक अंश सुनवा रहे हैं। इसे सुन
कर आपको निम्नलिखित तीन में से किन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं।
‘स्वरगोष्ठी’ के 250वें अंक की पहेली के सम्पन्न होने तक जिस प्रतिभागी के
सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस वर्ष की पाँचवीं श्रृंखला (सेगमेंट) का
विजेता घोषित किया जाएगा।
पर इस प्रकार भेजें कि हमें शनिवार, 7 नवम्बर, 2015 की मध्यरात्रि से
पूर्व तक अवश्य प्राप्त हो जाए। COMMENTS में दिये गए उत्तर मान्य हो सकते
है, किन्तु उसका प्रकाशन पहेली का उत्तर भेजने की अन्तिम तिथि के बाद किया
जाएगा। इस पहेली के विजेताओं के नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के 244वें अंक में
प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रकाशित और प्रसारित गीत-संगीत, राग, अथवा
कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच
बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ
के नीचे दिये गए COMMENTS के माध्यम से तथा swargoshthi@gmail.com अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।
क्रमांक 240 की संगीत पहेली में हमने आपको सुप्रसिद्ध गायिका बेगम अख्तर
की आवाज़ में प्रस्तुत ठुमरी का एक अंश सुनवा कर आपसे तीन प्रश्न पूछा था।
आपको इनमें से किसी दो प्रश्न का उत्तर देना था। इस पहेली के पहले प्रश्न
के उत्तर में हमे दो उत्तर, ‘खमाज’ और ‘तिलंग’, प्राप्त हुए हैं। ठुमरी का जो
अंश सुनवाया गया था, उसमें दोनों रागों का भ्रम हो रहा है। दरअसल दोनों राग
खमाज थाट के हैं, दोनों रागों में दोनों निषाद का प्रयोग होता है और दोनों
रागों का वादी और संवादी स्वर क्रमशः गान्धार और निषाद होता है। हमने
दोनों उत्तरों को सही माना है। पहले प्रश्न का सही उत्तर है- राग खमाज,
दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- ताल कहरवा की लग्गी और तीसरे प्रश्न का उत्तर
है- गायिका बेगम अख्तर।
उत्तर देने वाले प्रतिभागी हैं- वोरहीज, न्यूजर्सी से डॉ. किरीट छाया,
हैदराबाद से डी. हरिणा माधवी, पेंसिलवेनिया, अमेरिका से विजया राजकोटिया और
जबलपुर से क्षिति तिवारी। चारो प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’
की ओर से हार्दिक बधाई। अगले अंक में हम चौथी श्रृंखला के विजेताओं के
नामों की घोषणा भी करेंगे।
‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ पर लघु
श्रृंखला ‘संगीत के शिखर पर’ का यह तीसरा अंक था। अगले अंक में हम भारतीय
संगीत की किसी अन्य विधा के किसी शिखर व्यक्तित्व के कृतित्व पर आधारित
कार्यक्रम प्रस्तुत करेंगे। इस श्रृंखला के लिए यदि आप किसी राग, गीत अथवा
कलाकार को सुनना चाहते हों तो अपना आलेख या गीत हमें शीघ्र भेज दें। हम
आपकी फरमाइश पूर्ण करने का हर सम्भव प्रयास करते हैं। आपको हमारी यह
श्रृंखला कैसी लगी? हमें ई-मेल अवश्य कीजिए। अगले रविवार को एक नए अंक के
साथ प्रातः 9 बजे ‘स्वरगोष्ठी’ के इसी मंच पर आप सभी संगीतानुरागियों का हम
स्वागत करेंगे।
1 comment
Shri Krishnamohanji,
He was also the great singer of classical music and turned to bhajans and ghazals using his skills so well. Jagjit Singh ji will be remembered forever by all kinds of people- classical music lovers and the general public of varied interests.
Vijaya Rajkotia