आपका ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ पर। और बहुत बहुत शुक्रिया हमारे मंच पर
पधारने के लिये, हमें अपना मूल्यवान समय देने के लिए।
नमस्कार और धन्यवाद जो मुझे आपने याद किया!
सच पूछिये अमित जी तो मैं थोड़ा सा संशय में था कि आप मुझे कॉल करेंगे या
नहीं, आपको याद रहेगा या नहीं। पर आपने बिल्कुल आपके द्वारा दिए गए समय पर
कॉल कर मुझे चौंका ज़रूर दिया है। और एक बार फिर मैं आपको धन्यवाद देता
हूँ।
मैं कभी कुछ भूलता नहीं।
मैं अपने पाठकों को यह बताना चाहूँगा कि मेरी अमित जी से फ़ेसबूक पर
मुलाकात होने पर जब मैंने उनसे साक्षात्कार के लिए आग्रह किया तो वो न केवल
बिना कुछ पूछे राज़ी हो गये, बल्कि यह कहा कि वो ख़ुद मुझे टेलीफ़ोन करेंगे।
यह बात है 3 जून 2011 की और साक्षात्कार का समय ठीक हुआ 11 जून दिन के
12:30 बजे। इस दौरान मेरी उनसे कोई बात नहीं हुई, न ही किसी तरह का कोई
सम्पर्क हुआ। इसलिये मुझे लगा कि शायद अमित जी भूल जायेंगे और कहाँ इतने
व्यस्त इन्सान को याद रहेगा मुझे फ़ोन करना। लेकिन 11 जून ठीक 12:30 बजे
उन्होंने वादे के मुताबिक़ मुझे कॉल कर मुझे चौंका दिया। इतने व्यस्त होते
हुए भी उन्होंने समय निकाला, इसके लिए हम उन्हें जितना भी धन्यवाद दें कम
है। एक बार फिर यह सिद्ध हुआ कि फलदार पेड़ हमेशा झुके हुए होते हैं। सच
कहूँ कि उनका फ़ोन आते ही अमित जी का लिखा वह गीत मुझे याद आ गया कि “आप
कहें और हम न आयें, ऐसे तो हालात नहीं”। एकदम से मुझे ऐसा लगा कि जैसे यह
गीत उन्हीं पर लागू हो गया हो। ख़ैर, बातचीत का सिलसिला शुरू करते हैं। अमित
जी, आपकी पैदाइश कहाँ की है? अपने माता-पिता और पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे
में कुछ बताइये। क्या कला, संस्कृति या फ़िल्म लाइन से आप से पहले आपके
परिवार का कोई सदस्य जुड़ा हुआ था?
मेरा ताल्लुक दिल्ली से है। मेहरोली रोड पर हमारा घर है। मेरा स्कूल था
सेण्ट. कोलम्बस और कॉलेज था सेण्ट. स्टीवेन्स। हमारे घर में कला-संस्कृति
से किसी का दूर दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं था। हमारे घर में सब इंजीनियर थे,
और नाना के तरफ़ सारे डॉक्टर थे।
तो फिर आप पर भी दबाव डाला गया होगा इंजीनियर या डॉक्टर बनने के लिए?
जी नहीं, ऐसी कोई बात नहीं थी, मुझे पूरी छूट थी कि जो मैं करना चाहूँ, जो
मैं बनना चाहूँ, वह बनूँ। मेरा रुझान लिखने की तरफ़ था, इसलिए किसी ने मुझे
मजबूर नहीं किया।
यह बहुत अच्छी बात है, और आजकल के माता-पिता जो अपने बच्चों पर इंजीनियर या डॉक्टर बनने के लिए दबाव डालते हैं, और कई बार इसके विपरीत परिणाम भी
उन्हें भुगतने पड़ते हैं, उनके लिए यह कहना ज़रूरी है कि बच्चा जो बनना
चाहे, उसकी रुझान जिस फ़ील्ड में है, उसे उसी तरफ़ प्रोत्साहित करना चाहिए।
सही बात है!
अच्छा अमित जी, बाल्यकाल में या स्कूल-कॉलेज के दिनों में आप किस तरह के
सपने देखा करते थे अपने करीयर को लेकर? वो दिन किस तरह के हुआ करते थे?
अपने बचपन और कॉलेज के ज़माने के बारे में कुछ बताइए।
मैं जब 14-15 साल का था, तब मैंने अपना पहला नाटक लिखा था। फिर कविताएँ
लिखने लगा, और तीनों भाषाओं में – हिंदी, उर्दू और अंग्रेज़ी। फिर उसके बाद
थियेटर से भी जुड़ा जहाँ पर मुझे वी. बी. कारन्त, बी. एम. शाह, ओम शिवपुरी, सुधा
शिवपुरी जैसे दिग्गज कलाकारों के साथ काम करने का मौका मिला। वो सब NSD (राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय) से
ताल्लुक रखते थे।
आपने भी NSD (राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय) में कोर्स किया था?
नहीं, मैंने कोई कोर्स नहीं किया।
आपने फिर किस विषय में पढ़ाई की?
मैंने इंगलिश लिटरेचर में एम.ए. किया है।
इंगलिश में एम.ए. कर हिन्दी के गीतकार बने। आपने अपना यह करीयर किस तरह से शुरू किया?
कॉलेज
में रहते समय मैं ‘टेम्पस’ नामक लातिन पत्रिका का सम्पादक था, 1969 से
1971 के दौरान। दिल्ली यूनिवर्सिटी में ‘डीबेट ऐण्ड ड्रामाटिक सोसायटी’ का
सचिव भी था। समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में भी फ़िल्म सम्बन्धी लेख लिखता था। कॉलेज में
रहते ही मेरी मुलाक़ात हुई देव (आनंद) साहब से, जो उन दिनों दिल्ली में
अपने ‘नवकेतन’ का एक डिस्ट्रिब्यूशन ऑफ़िस खोलना चाहते थे। तो मुझे उन्होंने
कहा कि तुम भी कभी कभी चक्कर मार लिया करो। इस तरह से मैं उनसे जुड़ा और उस
वक़्त फिल्म ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ बन रही थी। मुझे उस फ़िल्म के स्क्रिप्ट में
काम करने का उन्होंने मौका दिया और मुझे उस सिलसिले में वो नेपाल भी लेकर
गए। मुझे कोई स्ट्रगल नहीं करना पड़ा। यश जोहर नवकेतन छोड़ गये थे और मैं आ
गया।
अच्छा, फिर उसके बाद आपने उनकी किन किन फ़िल्मों में काम किया?
‘नवकेतन’ में मेरा रोल था ‘एग्ज़ेक्युटिव प्रोड्यूसर’ का। 1971 में देव साहब
से जुड़ने के बाद ‘हीरा-पन्ना’ (1973), ‘शरीफ़ बदमाश’ (1973), ‘इश्क़ इश्क़
इश्क़’ (1974), ‘देस परदेस’ (1978), ‘लूटमार’ (1980), इन फ़िल्मों में मैं
‘एग्ज़ेक्यूटिव प्रोड्यूसर’ था। ‘जानेमन’ (1976) और ‘बुलेट’ (1976) में मैं
बिज़नेस एग्ज़ेक्यूटिव और प्रोडक्शन कन्ट्रोलर था।
एग्ज़ेक्यूटिव प्रोड्यूसर से प्रोड्युसर आप कब बनें?
फ़िल्म ‘मन-पसंद’ से। 1980 की यह फ़िल्म थी, इसके गीत भी मैंने ही लिखे थे।
फ़िल्म के डिरेक्टर थे बासु चटर्जी और म्यूज़िक डिरेक्टर थे राजेश रोशन।
![]() ![]() |
वाह! इस फ़िल्म के गीत तो बहुत ही कर्णप्रिय हैं।
“होठों पे गीत जागे, मन कहीं दूर भागे”, “चारु चंद्र की चंचल चितवन”, “मैं
अकेला अपनी धुन में मगन”, एक से एक लाजवाब गीत। अच्छा राजेश रोशन के साथ
आपने बहुत काम किया है, उनसे मुलाक़ात कैसे हुई थी?
राजेश रोशन के परिवार को मैं जानता था, राकेश रोशन से पहले मिल चुका था, इस तरह से उनके साथ जान-पहचान थी।
एक राजेश रोशन, और दूसरे संगीतकार जिनके साथ आपने अच्छी पारी खेली, वो थे बप्पी लाहिड़ी साहब। उनसे कैसे मिले?
इन दोनों के साथ मैंने कुछ 20-22 फ़िल्मों में काम किये होंगे। मेरा पहला
गीत जो है ‘चलते चलते’ का शीर्षक गीत, वह मैंने बप्पी लाहिड़ी के लिए लिखा
था। उन दिनों वो नये नये आये थे और हमारे ऑफ़िस में आया करते थे। मैं उनको
प्रोड्यूसर भीष्म कोहली के पास लेकर गया था। तो वहाँ पर उनसे कहा गया कि
फ़िल्म के टाइटल सॉंग के लिये कोई धुन तैयार करके बतायें। केवल 15 मिनट के
अंदर धुन भी बनी और मैंने बोल भी लिखे।
वाह! केवल 15 मिनट में यह कालजयी गीत आपने लिख दिया, यह तो सच में आश्चर्य की बात है!
देखिये, मेरा गीत लिखने का तरीका बड़ा स्पॉन्टेनीयस हुआ करता था। मैं वहीं
ऑफ़िस में ही लिखता था, घर में लाकर लिखने की आदत नहीं थी। फ़िल्म में गीत
लिखना एक प्रोफ़ेशनल काम है; जो लोग ऐसा कहते हैं कि उन्हें घर पर बैठे या
प्रकृति में बैठ कर लिखने की आदत है तो यह सही बात नहीं है। फ़िल्मी गीत
लिखना कोई काविता या शायरी लिखना नहीं है। आज लोग कहते हैं कि आज धुन पहले
बनती है, बोल बाद में लिखे जाते हैं, लेकिन मैं यह कहना चाहूँगा कि उस
ज़माने में भी धुन पहले बनती थी, बोल बाद में लिखे जाते थे, ‘प्यासा’ में भी
ऐसा ही हुआ था, ‘देवदास’ में भी ऐसा ही हुआ था।
किशोर कुमार के गाये ‘चलते चलते’ फ़िल्म का शीर्षक गीत “कभी अलविदा ना
कहना” तो जैसे एक ऐन्थेम सॉंग् बन गया है। आज भी यह गीत उतना ही लोकप्रिय
है जितना उस ज़माने में था, और अब भी हम इस गीत को सुनते हैं तो एक सिहरन
सी होती है तन-मन में। “हम लौट आयेंगे, तुम यूँही बुलाते रहना” सुन कर तो
आँखें भर जाती हैं। और अब तो एक फ़िल्म भी बन गई है ‘कभी अलविदा
ना कहना’ के शीर्षक से। अच्छा अमित जी, ‘चलते चलते’ फ़िल्म का ही एक और गीत
था लता जी का गाया “दूर दूर तुम रहे, पुकारते हम रहे…”। इसके बारे में भी
कुछ बताइए?
जी हाँ, इस गीत के लिए उन्हें अवार्ड भी मिला था। इस गीत की धुन बी. जे.
थॉमस के मशहूर गीत “raindrops keep falling on my head” की धुन से
इन्स्पायर्ड थी।
अच्छा, ‘चलते चलते’ के बाद फिर आपकी कौन सी फ़िल्में आईं?
उसके बाद मैंने बहुत से ग़ैर-फ़िल्मी गीत लिखे, 80 के दशक में, करीब 100-150
गानें लिखे होंगे। फ़िल्मी गीतों की बात करें तो ‘रामसे ब्रदर्स’ की 4-5
हॉरर फ़िल्मों में गीत लिखे, जिनमें अजीत सिंह के संगीत में ‘पुराना मन्दिर’
भी शामिल है।
सुजॉय – ‘पुराना मन्दिर’ का आशा जी का गाया “वो बीते दिन याद हैं” गीत
तो ख़ूब मकबूल हुआ था। अच्छा अमित जी, यह बताइए कि जब आप कोई गीत लिखते हैं
तो आप की रणनीति क्या होती है, किन बातों का ध्यान रखते हैं, कैसे लिखते
हैं?
देखिए मैं बहुत spontaneously लिखता हूँ। मैं दफ़्तर या संगीतकार के वहाँ
बैठ कर ही लिखता था। घर पे बिल्कुल नहीं लिखता था। फ़िल्म में गीत लिखना कोई
कविता लिखना नहीं है कि किसी पहाड़ पे जा कर या तालाब के किनारे बैठ कर
लिखने की ज़रूरत है, जो ऐसा कहते हैं वो झूठ कहते हैं। फ़िल्मों में गीत
लिखना एक बहुत ही कमर्शियल काम है, धुन पहले बनती है और आपको उस हिसाब से
सिचुएशन के हिसाब से बोल लिखने पड़ते हैं। हाँ कुछ गीतकार हैं जिन्होंने नए
नए लफ़्ज़ों का इस्तमाल किया, जैसे कि राजा मेहन्दी अली ख़ाँ साहब, मजरूह
साहब, साहिर साहब। इनके गीतों में आपको उपमाएँ मिलेंगी, अन्य अलंकार
मिलेंगे।
अच्छा अलंकारों की बात चल रही है तो फ़िल्म ‘मन-पसन्द’ में आपने अनुप्रास
अलंकार का एक बड़ा ख़ूबसूरत प्रयोग किया था, उसके बारे में बताइए।
‘मन-पसन्द’ मैंने ही प्रोड्यूस की थी। फ़िल्म में एक सिचुएशन ऐसा आया कि
जिसमे छन्दों की ज़रूरत थी। देव आनन्द टिना मुनीम को गाना सिखा रहे हैं। तो
मैंने उसमें जयदेव की कविता से यह लाइन लेकर गीत पूरा लिखा।
बहुत सुन्दर!
मैं यह समझता हूँ कि जो एक गीतकार लिखता है उस पर उसके जीवन और तमाम अनुभवों
का असर पड़ता है। उसके गीतों में वो ही सब चीज़ें झलकती हैं। सबकॉनशियस
माइण्ड में वही सबकुछ चलता रहता है गीतकार के।
‘मनपसन्द’ के सभी गीत इतने सुन्दर हैं कि कौन सा गीत किससे बेहतर है
बताना मुश्किल है। “सुमन सुधा रजनीगंधा” भी लाजवाब गीत है। अच्छा, अमित जी,
राजेश रोशन और बप्पी लाहिड़ी के अलावा और किन किन संगीतकारों के साथ आपने
काम किया है?
लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल के साथ फ़िल्म ‘भैरवी’ में काम किया, एक और फ़िल्म थी
उनके साथ जो बनी नहीं। भूपेन हज़ारिका के साथ NFDC की एक फ़िल्म ‘कस्तूरी’
में गीत लिखा। दान सिंह के साथ भी काम किया है। जगजीत सिंह के साथ भी काम
किया है, दूरदर्शन का एक सीरियल था, जलाल आग़ा साहब का, उसमें। अनु मलिक की
2-3 फ़िल्मों में गीत लिखे, रघुनाथ सेठ के साथ 1-2 फ़िल्मों में। इस तरह से
कई संगीतकारों के साथ काम करने का मौका मिला।
अमित जी, कई नए कलाकार आप ही के लिखे गीत गा कर फ़िल्म-जगत में उतरे थे, उनके बारे में बताइए।
अलका याग्निक ने अपना पहला गीत ‘हमारी बहू अलका’ में गाया था जिसे मैंने
लिखा था। उदित नारायण ने भी अपना पहला गीत रफ़ी साहब के साथ ‘उन्नीस बीस’
फ़िल्म में गाया था जो मेरा लिखा हुआ था। शरण प्रभाकर, सलमा आग़ा ने मेरे ग़ैर
फ़िल्मी गीत गाए। पिनाज़ मसानी का पहला फ़िल्मी गीत मेरा ही लिखा हुआ था।
शंकर महादेवन ने पहली बार एक टीवी सीरियल में गाया था मेरे लिए। सुनीता राव
भी टीवी सीरियल से आई हैं। फिर शारंग देव, जो पंडित जसराज के बेटे हैं,
उनके साथ मैंने 2-3 फ़िल्मों में काम किया।
जी हाँ, फ़िल्म ‘शेष’ में आप प्रोड्यूसर, डिरेक्टर, गीतकार, कहानीकार, पटकथा, संवाद-लेखक सभी कुछ थे और संगीत दिया था शारंग देव ने।
फिर इलैयाराजा के लिए भी गीत लिखे। गायकों में किशोर कुमार ने सबसे ज़्यादा
मेरे गीत गाये, रफ़ी साहब नें कुछ 8-10 गीत गाये होंगे। लता जी, आशा जी,
मन्ना डे साहब, और मुकेश जी ने भी मेरे दो गीत गाये हैं, दोनों डुएट्स थे,
एक बप्पी लाहिड़ी के लिए, एक राजेश रोशन के लिए। इनके अलावा अमित कुमार,
शैलेन्द्र सिंह, कविता कृष्णमूर्ति, अलका, अनुराधा, उषा उथुप ने मेरे गीत
गाये हैं। भीमसेन जोशी जी के बेटे के साथ मैंने एक ऐल्बम किया है।
नॉन-फ़िल्म में नाज़िया हसन और बिद्दू ने मेरे कई गीत गाए हैं। मंगेशकर
परिवार के सभी कलाकारों ने मेरे ग़ैर-फ़िल्मी गीत गाए हैं। मीना मंगेशकर का
भी एक ऐल्बम था मेरे लिखे हुए गीतों का। मीना जी ने उसमें संगीत भी दिया
था, वर्षा ने गीत गाया था।
अमित जी, ये तो थीं बातें आपके फ़िल्मी गीतकार की, अब मैं जानना चाहूँगा ‘प्लस चैनल’ के बारे में।
‘प्लस चैनल’ हमने 1990 में शुरु की थी पार्टनर्शिप में, जिसने मनोरंजन
उद्योग में क्रान्ति ला दी। उस समय ऐसी कोई संस्था नहीं थी टीवी
प्रोग्रामिंग की। महेश भट्ट भी ‘प्लस चैनल’ में शामिल थे। हमनें कुछ 10
फ़ीचर फ़िल्मों और 3000 घंटों से उपर टीवी प्रोग्रामिंग और 1000 म्युज़िक
ऐल्बम्स बनाए। ‘बिज़नेस न्यूज़’, ‘ई-न्यूज़’ हमने शुरु की थी। पहला म्युज़िक
विडियो हमने ही बनाया, नाज़िया हसन को लेकर।
‘प्लस चैनल’ तो काफ़ी कामयाब रहा, पर आपने इसे बन्द क्यों कर दिया?
रिलायन्स में आने के बाद बन्द कर दिया।
क्या आपने गीत लिखना भी छोड़ दिया है?
जी हाँ, अब बस मैं नए लोगों को सिखाता हूँ, मेन्टरिंग का काम करता हूँ।
रिलायन्स एन्टरटेन्मेण्ट का चेयरमैन हूँ, सलाहकार हूँ, बच्चों को सिखाता
हूँ।
अच्छा अमित जी, चलते चलते अपने परिवार के बारे में कुछ बताइए।
मैं अकेला हूँ, मैंने शादी नहीं की।
अच्छा अच्छा। फिर तो ‘मनपसन्द’ का गीत “मैं अकेला अपनी धुन में मगन,
ज़िन्दगी का मज़ा लिए जा रहा था” गीत आपकी ज़िन्दगी से भी कहीं न कहीं
मिलता-जुलता रहा होगा। ख़ैर, अमित जी, बहुत बहुत शुक्रिया आपका, इतनी
व्यस्तता के बावजूद आपने हमें समय दिया, फिर कभी सम्भव हुआ तो आपसे दुबारा
विस्तार से बातचीत होगी। बहुत बहुत धन्यवाद आपका।
धन्यवाद!
हमारी यह प्रस्तुति कैसी लगी, हमे अवश्य बताइएगा। आप अपने सुझाव और
फरमाइशें ई-मेल आईडी cine.paheli@yahoo.com पर भेज सकते है। अगले माह के
चौथे शनिवार को हम एक ऐसे ही चर्चित अथवा भूले-विसरे फिल्म कलाकार के
साक्षात्कार के साथ उपस्थित होंगे। अब हमें आज्ञा दीजिए।
1 comment
बहुत बढ़िया