‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार। दोस्तों, हम रोज़ाना रेडियो पर, टीवी पर, कम्प्यूटर पर, और न जाने कहाँ-कहाँ, जाने कितने ही गीत सुनते हैं, और गुनगुनाते हैं। ये फ़िल्मी नग़में हमारे साथी हैं सुख-दुख के, त्योहारों के, शादी और अन्य अवसरों के, जो हमारे जीवन से कुछ ऐसे जुड़े हैं कि इनके बिना हमारी ज़िन्दगी बड़ी ही सूनी और बेरंग होती। पर ऐसे कितने गीत होंगे जिनके बनने की कहानियों से, उनसे जुड़ी दिलचस्प क़िस्सों से आप अवगत होंगे? बहुत कम, है न? कुछ जाने-पहचाने, और कुछ कमसुने फ़िल्मी गीतों की रचना प्रक्रिया, उनसे जुड़ी दिलचस्प बातें, और कभी-कभी तो आश्चर्य में डाल देने वाले तथ्यों की जानकारियों को समेटता है ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ का यह स्तम्भ ‘एक गीत सौ कहानियाँ’। इसकी 53वीं कड़ी में आज जानिये फ़िल्म ‘आम्रपाली’ के मशहूर गीत “जाओ रे जोगी तुम जाओ रे” से जुड़ी कुछ दिलचस्प बातें।
फ़िल्म संगीत जगत में कुछ संगीतकार ऐसे हुए हैं जिन्होंने अपने करिअर के शुरुआत में धार्मिक और ऐतिहासिक फ़िल्मों में संगीत देने की वजह से “टाइप-कास्ट” हो गए और जिसकी वजह से सामाजिक और पॉपुलर फ़िल्मों में संगीत कभी नहीं दे सके। पर ऐसा भी नहीं कि इन संगीतकारों को धार्मिक और ऐतिहासिक फ़िल्मों में बड़ी सफलता प्राप्त हुई हो। तब इन संगीतकारों ने यह तर्क दिया कि इन जौनरों के गीतों को सफलता नहीं मिलती है। इस पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता क्योंकि संगीतकार जोड़ी शंकर-जयकिशन ने यह कई बार साबित किया है कि फ़िल्म चाहे सामाजिक हो या धार्मिक, या फिर ऐतिहासिक, अगर संगीतकार में काबिलियत है तो उसे सफलता की बुलन्दी तक पहुँचा सकता है। ‘हलाकू’, ‘यहूदी’ और ‘आम्रपाली’ आदि ऐसी फ़िल्में हैं जो ऐतिहासिक और पौराणिक जौनर के होते भी अपने गीत-संगीत की वजह से बेहद कामयाब रहीं। ‘आम्रपाली’ लेख टंडन की फ़िल्म थी जिसमें वैजयन्तीमाला और सुनील दत्त मुख्य किरदारों में थे। फ़िल्म की कहानी 500 BC काल के वैशाली राज्य की नगरवधू आम्रपाली पर केन्द्रित थी। मगध साम्राज्य के राजा अजातशत्रु आम्रपाली से प्यार करने लगता है और उसे पाने के लिए वैशाली को तबाह कर देता है। पर तब तक आम्रपाली गौतम बुद्ध के विचारों से प्रभावित होकर बुद्ध के शरण में चली जाती है। इस फ़िल्म को लेख टंडन ने इतनी ख़ूबसूरती के साथ परदे पर उतारा कि इस फ़िल्म को उस साल ऑस्कर के लिए भारत की तरफ़ से ‘Best Foreign Language Film’ के लिए भेजा गया। फ़िल्म को बॉक्स ऑफ़िस पर भले बहुत ज़्यादा कामयाबी न मिली हो पर इसे एक क्लासिक फ़िल्म का दर्जा दिया गया है। फ़िल्म के गीत-संगीत ने भी फ़िल्म को चार-चाँद लगाए। शंकर-जयकिशन के शास्त्रीय-संगीत पर आधारित इस फ़िल्म की रचनाएँ आज भी कानों में शहद घोलती है। फ़िल्म में कुल पाँच गीत थे, जिनमें से चार गीत लता मंगेशकर की एकल आवाज़ में थे (“नील गगन की छाँव में…”, “तड़प ये दिन रात की…”, “जाओ रे जोगी तुम जाओ रे…”, “तुम्हे याद करते करते जायेगी रैन सारी…”) और पाँचवाँ गीत “नाचो गाओ धूम मचाओ…” एक समूह गीत था। इनमें से केवल एक गीत “नील गगन की छाँव में” हसरत जयपुरी का लिखा हुआ था, और बाक़ी चार गीत शैलेन्द्र के थे।
और अब बारी एक मज़ेदार क़िस्से की। गीत बन रहा था “जाओ रे जोगी तुम जाओ रे”। रेकॉर्डिंग स्टूडियो में शंकर, जयकिशन, शैलेन्द्र और लता मंगेशकर इस गीत का रिहर्सल कर रहे थे। संयोग से राज कपूर भी किसी काम से उस स्टूडियो में उस समय मौजूद थे। इस गीत की धुन उनके कानों में पड़ते ही वो उठ खड़े हुए और रिहर्सल के जगह पर पहुँच गए। उन्होंने शंकर-जयकिशन से कहा कि यह धुन तो मेरी है, इसे तुम लोग किसी और की फ़िल्म में कैसे इस्तेमाल कर सकते हो? दरसल बात ऐसी थी कि जिस धुन पर “जाओ रे जोगी तुम…” को बनाया गया था, वह धुन इससे पहले शंकर जयकिशन ने राज कपूर की किसी फ़िल्म के लिए बनाई थी जिसका इस्तेमाल राज कपूर ने उस फ़िल्म में नहीं किया था। इसलिए शंकर-जयकिशन यह समझ बैठे कि राज साहब को वह धुन नहीं चाहिए। पर राज कपूर उस धुन का इस्तेमाल अपनी आनेवाली किसी फ़िल्म में करना चाहते थे। तो उस रिहर्सल रूम में राज कपूर से यह ऐलान कर दिया कि वो इस धुन का इस्तेमाल ‘मेरा नाम जोकर’ के किसी गीत में करना चाहते हैं, इसलिए “जाओ रे जोगी” के लिए शंकर-जयकिशन कोई और धुन बना ले। यह कह कर राज कपूर वहाँ से चले गए। एक पल के लिए जैसे रूम में सन्नाटा हो गया। लेख टंडन एक समय राज कपूर के सहायक हुआ करते थे और राज कपूर से उन्होंने फ़िल्म निर्माण के महत्वपूर्ण पहलू सीखे थे; ऐसे में वो राज कपूर के ख़िलाफ़ कैसे जाते या उनसे बहस करते, पर अब इस उलझन से कैसे निकले?
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लेख टंडन |
स्टूडियो की चुप्पी को तोड़ा लता मंगेशकर ने। उन्होंने हारमोनियम को अपनी तरफ़ खींचा और ऐलान किया कि चलिए हम एक और गीत बनाते हैं! शंकर-जयकिशन ने मिनटों में मुखड़े की धुन बना दी, और शैलेन्द्र के मुख से भी तुरन्त मुखड़े के बोल निकल पड़े “जाओ रे जोगी तुम जाओ रे, यह प्रेमियों की नगरी, यहाँ प्रेम ही है पूजा”। लता जी के मुख से इस मुखड़े की अद्भुत अदायगी को सुन कर सब ख़ुशी से उछल पड़े। पर अभी भी उलझन खतम नहीं हुई, मुखड़ा तो बन गया, पर अन्तरे इतनी जल्दी कैसे बनेंगे! तब शैलेन्द्र ने यह ऐलान कर दिया – “इस वक़्त 10 बज रहे हैं, सभी को 3 बजे वापस बुलाओ, मेरा गाना पूरा हो जाएगा”। यह कह कर शैलेन्द्र ने लेख टंडन को अपनी कार में बिठाया और ‘आरे मिल्क कॉलोनी’ ले गए। जाते हुए बीअर की कुछ बोतलें भी साथ ले लिए। आरे कॉलोनी की सुन्दर गलियों में टहलते हुए शैलेन्द्र मुखड़े को गुनगुनाए जा रहे थे, पर लाख कोशिशें करने के बावजूद अन्तरे का कुछ भी उन्हें सूझ नहीं रहा था। टहलते टहलते घड़ी के काँटें भी आगे बढ़ते चले जा रहे थे। घड़ी में 3 बजने में जब कुछ ही समय बाक़ी थे, तब लेख टंडन घबराते हुए शैलेन्द्र से पूछा कि अब क्या होगा? शैलेन्द्र ने सीधे सीधे उनसे माफ़ी माँग ली और कहा कि आज की रेकॉर्डिंग रद्द करनी पड़ेगी। वापसी में गाड़ी में लेख टंडन और शैलेन्द्र की बीच कोई भी बातचीत नहीं हुई। शायद लेख साहब शैलेन्द्र जी से ख़फ़ा हो गए थे। स्टूडियो के बाहर पहुँचते ही जब दोनों ने लता जी की गाड़ी को खड़ा देखा तो लेख साहब डर गए और शैलेन्द्र से कहा, “अब आप ही उन्हें सम्भालिएगा, हमने उनका पूरा दिन खराब कर दिया, वो बहुत नाराज़ होंगी”। शैलेन्द्र सिर्फ़ मुस्कुराए।
स्टूडियो के अन्दर पहुँच कर दोनों ने देखा कि लता मंगेशकर काँच से घिरे सिंगर के केबिन में पहुँच चुकी हैं। लेख टंडन ने मॉनिटर रूम में जाते हुए शैलेन्द्र जी से कहा कि वो जाकर लता जी से बात करे। शैलेन्द्र और लता के बीच क्या बातचीत हो रही थी यह लेख साहब को पता नहीं चला, वो सिर्फ़ शीशे से देख रहे थे। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि आख़िर इतनी क्या बातें हो रही हैं दोनों में जबकि गाना लिखा ही नहीं गया है। अपनी उत्सुकता को काबू में न रख पाते हुए लेख टंडन ने रेकॉर्डिस्ट से कहा कि वो सिंगर का माइक्रोफ़ोन ऑन कर दे ताकि वो वहाँ क्या चल रहा है उसे सुन सके। जैसे ही माइक्रोफ़ोन ऑन हुआ तो जो शब्द उनके कान में गए वो थे – “शैलेन्द्र जी, बस… दो ही अन्तरे काफ़ी हैं इस गाने के लिए… बहुत अच्छे हैं!” लेख टंडन चकित रह गए। उन्हें ज़रा सा भी पता नहीं चला कि कविराज शैलेन्द्र ने किस समय ये अन्तरे बना लिए थे। शायद आरे कॉलोनी से वापस आते समय गाड़ी में जो चुप्पी साधे दोनो बैठे थे, उस वक़्त वो असल में अन्तरे ही रच रहे थे। क्या लिखा है शैलेन्द्र ने, राग कामोद के सुरों का आधार लेकर क्या कम्पोज़ किया है शंकर जयकिशन ने और क्या गाया है लता मंगेशकर ने। आप भी सुनिए।
अब आप भी ‘एक गीत सौ कहानियाँ’ स्तम्भ के वाहक बन सकते हैं। अगर आपके पास भी किसी गीत से जुड़ी दिलचस्प बातें हैं, उनके बनने की कहानियाँ उपलब्ध हैं, तो आप हमें भेज सकते हैं। यह ज़रूरी नहीं कि आप आलेख के रूप में ही भेजें, आप जिस रूप में चाहे उस रूप में जानकारी हम तक पहुँचा सकते हैं। हम उसे आलेख के रूप में आप ही के नाम के साथ इसी स्तम्भ में प्रकाशित करेंगे। आप हमें ईमेल भेजें cine.paheli@yahoo.com के पते पर।
प्रस्तुति सहयोग: कृष्णमोहन मिश्र
3 comments
Sujoy जी
आपके लेख बहुतही अर्थपूर्ण और आशय से भेर हुए होते हई. हमारे जैसे गान प्रेमीयोन के लीये वो खजाने की तरहा होते हई. एक गाना कैसा तैयार होता है इसके बारे मे जाणकार बहोत खुशी होती है. आपका दिल से धन्यवाद
माधवी चारुदत्ता
Sujoy ji
"कारवां सिनेसंगीत का" इस किताब की तरहा क्या आप् एक गीत सौ कहानियाँ के लेखिन के संकलन की भी किताब निकलेंगे। It will be very interesting to all the old song lovers.
Thank you
Madhavi Charudatta
Madhavi ji, bahut bahut dhanyavaad aapka hausla-afzaai ke liye. Ek Geet Sau Kahaaniyan ki bhi kitaab nikaali jaa sakti hai jab iske kam se kam 100 episodes poore ho jayenge tab.
Sujoy Chatterjee