राकेश जी, ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की तरफ़ से, हमारे तमाम पाठकों की तरफ़ से, और मैं अपनी तरफ़ से आपका हमारे इस मंच पर हार्दिक स्वागत करता हूँ, नमस्कार! यह हमारी ख़ुशनसीबी है कि आपसे मिलने और बातचीत करने का मौका मिला।
बक्शी साहब जब गीत लेखन के कार्य में बाहर जाते थे, या कभी दूसरे शहर में, या फिर कहीं हिल-स्टेशन में, तो क्या आपकी माताजी भी साथ जाया करतीं?
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1947 में सरहद के इस पार आते समय बस यही एक तसवीर वो साथ ला पाए थे |
अच्छा राकेश जी, आपने बताया कि आपका इम्पोर्ट का बिज़नेस था। क्या आपके परिवार के किसी और सदस्य ने बक्शी साहब के नक्श-ए-क़दम पर चलने का प्रयास किया है?
जी हाँ, और क्या ग़ज़ब का गीत था वह। उनकी आवाज़ भले ही हिंदी फ़िल्मी नायक की आवाज़ न हो, लेकिन कुछ ऐसी बात है उनकी आवाज़ में कि सुनते हुए दिल को अपने मोहपाश में बांध लेती है।
“मैं शायर तो नहीं” (बॉबी), “गाड़ी बुला रही है” (दोस्त), “एक बंजारा गाये” (जीने की राह), “अच्छा तो हम चलते हैं” (आन मिलो सजना), “आदमी जो कहता है” (मजबूर), “ज़िंदगी हर क़दम एक नई जंग है” (मेरी जंग), “ये रेश्मी ज़ुल्फ़ें” (दो रास्ते), “हमको तुमसे हो गया है प्यार क्या करें” (अमर अकबर ऐन्थनी), “भोली सी सूरत आँखों में मस्ती” (दिल तो पागल है), और इसके अलवा और ३०० गीत होंगे जहाँ तक मेरा अनुमान है।
“मैं बर्फ़ नहीं हूँ जो पिघल जाऊँगा”, यह कविता उन्होंने अपने लिए लिखी थी। बहुत अरसे बाद इसे फ़िल्मी गीत का रूप दिया सुभाष घई साहब ने। यह कविता उन्हें निरंतर अच्छे अच्छे गीत लिखने के लिए प्रेरीत करती रही। It is the essence of his life, his attitude to his profession, his soul.
बहुत बहुत शुक्रिया आपका।