फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी – 7 : ठुमरी भैरवी
पण्डित भीमसेन और सहगल की आवाज़ में सुनिए लौकिक और आध्यात्मिक भाव का बोध कराती यह कालजयी ठुमरी
के साथ आप सब संगीत-प्रेमियों का अभिनन्दन करता हूँ। इन दिनों जारी हमारी श्रृंखला ‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’ के सातवें अंक में आज हम एक कालजयी
पारम्परिक ठुमरी और उसके फिल्मी संस्करण के साथ उपस्थित
हैं। इस श्रृंखला में आप कुछ ऐसी पारम्परिक ठुमरियों का रसास्वादन कर रहे हैं जिन्हें फिल्मों में कभी यथावत तो कभी परिवर्तित अन्तरे के साथ इस्तेमाल किया गया। फिल्मों मे
शामिल ऐसी ठुमरियाँ अधिकतर पारम्परिक ठुमरियों से प्रभावित होती हैं। ‘रेडियो
प्लेबैक इण्डिया’ के कुछ स्तम्भ केवल श्रव्य माध्यम से
प्रस्तुत किये जाते हैं तो कुछ स्तम्भ आलेख और चित्र, दृश्य माध्यम
के साथ और गीत-संगीत श्रव्य माध्यम से प्रस्तुत होते हैं। इस श्रृंखला से हम एक
नया प्रयोग कर रहे हैं। श्रृंखला के अंकों को हम प्रायोगिक रूप से दोनों माध्यमों
में प्रस्तुत कर रहे हैं। ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की प्रमुख सहयोगी संज्ञा टण्डन की आवाज़ में पूरा आलेख और गीत-संगीत
श्रव्य माध्यम से भी प्रस्तुत किया जा रहा है। हमारे इस प्रयोग पर आप अपनी
प्रतिक्रिया अवश्य दीजिएगा। आज के अंक में हम अवध के नवाब वाजिद अली शाह की
सुविख्यात ठुमरी- ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय…’ का गायन पारम्परिक और फिल्मी दोनों रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। ठुमरी
का पारम्परिक गायन पण्डित भीमसेन जोशी के स्वरों में और फिल्मी रूप, फिल्म ‘स्ट्रीट सिंगर’ मेँ कुन्दनलाल सहगल की आवाज़ में प्रस्तुत
किया गया है। जिन पाठकों को देवनागरी लिपि पढ़ने मेँ असुविधा होती है उनके लिए
संज्ञा टण्डन की आवाज़ मेँ प्रस्तुत आलेख और गीतों का श्रव्य रूप अवश्य रुचिकर
होगा।
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नवाब वाजिद अली शाह |
चौथे से लेकर छठें दशक तक की हिन्दी फिल्मों के संगीतकारों ने राग आधारित गीतों का प्रयोग कुछ अधिक किया था। उन दिनों शास्त्रीय मंचों पर या ग्रामोफोन रेकार्ड के माध्यम से जो बन्दिशें, ठुमरी, दादरा आदि बेहद लोकप्रिय होती थीं, उन्हें फिल्मों में कभी-कभी यथावत और कभी अन्तरे बदल कर प्रयोग किये जाते रहे। चौथे दशक के कुछ संगीतकारों ने फिल्मों में परम्परागत ठुमरियों का बड़ा स्वाभाविक प्रयोग किया था। फिल्मों में आवाज़ के आगमन के इस पहले दौर में राग आधारित गीतों के गायन के लिए सर्वाधिक यश यदि किसी गायक को प्राप्त हुआ, तो वह कुन्दनलाल (के.एल.) सहगल ही थे। उन्होने 1938 में प्रदर्शित ‘न्यू थियेटर’ की फिल्म ‘स्ट्रीट सिंगर’ में शामिल पारम्परिक ठुमरी- ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय…’ गाकर उसे कालजयी बना दिया। आज के अंक में हम आपसे भैरवी की इसी ठुमरी से जुड़े कुछ तथ्यों पर चर्चा करेंगे।
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फिल्म ‘स्ट्रीट सिंगर’ में कुन्दनलाल सहगल |
चौथे और पाँचवें दशक की फिल्मों में रागदारी संगीत की उन रचनाओं को शामिल करने का चलन था जिन्हें संगीत के मंच पर अथवा ग्रामोफोन रेकार्ड के माध्यम से लोकप्रियता मिली हो। फिल्म ‘स्ट्रीट सिंगर’ में इस ठुमरी को शामिल करने का उद्येश्य भी सम्भवतः यही रहा होगा। परन्तु किसे पता था कि लोकप्रियता की कसौटी पर यह फिल्मी संस्करण, मूल पारम्परिक ठुमरी की तुलना में कहीं अधिक चर्चित हो जाएगा। इस ठुमरी का साहित्य दो भावों की सृष्टि करता है। इसका एक लौकिक भाव है और दूसरा आध्यात्मिक। फिल्म ‘स्ट्रीट सिंगर’ में सहगल द्वारा प्रस्तुत इस ठुमरी को अपार लोकप्रियता मिली, वहीं उन्होने इस गीत में दो बड़ी ग़लतियाँ भी की है। इस बारे में उदयपुर के ‘राजस्थान साहित्य अकादमी’ द्वारा प्रकाशित पत्रिका ‘मधुमती’ में एक लेख प्रकाशित हुआ था जिसके कुछ अंश हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं।


आलेख व प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र