

‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी
लघु श्रृंखला ‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’ के तीसरे अंक
में मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत और
अभिनन्दन करता हूँ। यह पूर्व में प्रकाशित / प्रसारित श्रृंखला का
परिमार्जित रूप है। ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के कुछ स्तम्भ केवल श्रव्य
माध्यम से प्रस्तुत किये जाते हैं तो कुछ स्तम्भ आलेख और चित्र दृश्य के
साथ गीत-संगीत श्रव्य माध्यम से तो कुछ स्तम्भ केवल श्रव्य माध्यम से
प्रस्तुत किये जाते हैं। इस श्रृंखला से हम एक नया प्रयोग कर रहे हैं।
श्रृंखला के अंकों को हम प्रायोगिक रूप से दोनों माध्यमों में प्रस्तुत कर
रहे हैं। ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की प्रमुख सहयोगी संज्ञा टण्डन की आवाज़
में पूरा आलेख और गीत-संगीत श्रव्य माध्यम से भी प्रस्तुत किया जा रहा है।
हमारे इस प्रयोग पर आप अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दीजिएगा। आज के अंक में हम
आपसे पूरब अंग की एक विख्यात ठुमरी गायिका रसूलन बाई के व्यक्तित्व पर और
उन्हीं की गायी एक अत्यन्त प्रसिद्ध ठुमरी- ‘फूलगेंदवा न मारो, लगत करेजवा
में जाय…’ पर चर्चा करेंगे। इसके साथ ही इस ठुमरी के फिल्म ‘दूज का चाँद’
में संगीतकार रोशन और पार्श्वगायक मन्ना डे द्वारा किये प्रयोग पर भी आपसे
चर्चा करेंगे।
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रसूलन बाई |
बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में पूरब अंग की ठुमरी गायिकाओं में विदुषी रसूलन बाई का नाम शीर्ष पर था। पूरब अंग की उपशास्त्रीय गायकी- ठुमरी, दादरा, होरी, चैती, कजरी आदि शैलियों की अविस्मरणीय गायिका रसूलन बाई बनारस के निकट स्थित कछवाँ बाज़ार (वर्तमान मीरजापुर ज़िला) की रहने वाली थीं और उनकी संगीत शिक्षा बनारस (अब वाराणसी) में हुई थी। संगीत का संस्कार इन्हें अपनी नानी से विरासत में मिला था। रसूलन बाई के संगीत को निखारने में उस्ताद आशिक खाँ, नज्जू मियाँ और टप्पा गायकी के अन्वेषक मियाँ शोरी के खानदान के शम्मू खाँ का बहुत बड़ा योगदान था। पूरब अंग की भावभीनी गायकी की चैनदारी, बोल-बनाव के लहजे, कहन के खास ढंग और ठहराव, यह सारे गुण रसूलन बाई की गायकी में था। टप्पा तो जैसे रसूलन बाई के लिए ही बना था। बारीक मुरकियाँ और मोतियों की लड़ियों जैसी तानों पर उन्हें कमाल हासिल था। उपशास्त्रीय संगीत की आजीवन साधनारत रहने वाली इस स्वरसाधिका को खयाल गायन पर भी कमाल का अधिकार प्राप्त था, परन्तु उन्होने स्वयं को उपशास्त्रीय शैलियों तक ही सीमित रखा और इन्हीं शैलियों में उन्हें भरपूर यश भी प्राप्त हुआ। ग्रामोफोन कम्पनी ने रसूलन बाई के अनेक लोकप्रिय रिकार्ड बनाए। 1935 में उनकी गायी ठुमरी- ‘फूलगेंदवा न मारो, लगत करेजवा में जाय…’ उनके सर्वाधिक लोकप्रिय रिकार्ड में से एक है। आइए, रसूलन बाई के स्वर में राग भैरवी के स्वरों से अनुगूंजित यह ठुमरी सुनते हैं-
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रोशन |
इसी परम्परागत ठुमरी को 1964 में प्रदर्शित फिल्म ‘दूज का चाँद’ में संगीतकार रोशन ने शामिल किया था, जिसे बहुआयामी गायक मन्ना डे ने अपने स्वरों से एक अलग रंग दिया था। दरअसल संगीतकार रोशन की संगीत शिक्षा लखनऊ के तत्कालीन मैरिस म्यूजिक कॉलेज (वर्तमान भातखण्डे संगीत विश्वविद्यालय) में हुई थी। वे तत्कालीन प्रधानाचार्य डॉ. श्रीकृष्ण नारायण रातंजनकर के प्रिय शिष्यों में रहे। लखनऊ में रह कर रोशन ने पूरब अंग की ठुमरियों का गहराई से अध्ययन किया था। फिल्म ‘दूज का चाँद’ के निर्देशक नितिन बोस एक हास्य प्रसंग में ठुमरी का प्रयोग करना चाहते थे। मूल ठुमरी श्रृंगार रस प्रधान है, किन्तु मन्ना डे ने अपने बोल-बनाव के कौशल से इसे कैसे हास्यरस में अभिमंत्रित कर दिया है, इसका सहज अनुभव आपको ठुमरी सुन कर हो सकेगा। यह ठुमरी हास्य अभिनेता आगा पर फिल्माया गया है। फिल्म के इस दृश्य में आगा अपनी प्रेमिका को रिझाने के लिए गीत के बोल पर ओंठ चलाते हैं और उनके दो साथी पेड़ के पीछे छिप कर इस ठुमरी का रिकार्ड बजाते हैं। बीच में दो बार रिकार्ड पर सुई अटकती भी है। इन क्षणों में मन्ना डे के गायन कौशल का परिचय मिलता है। सुनिए, इस परम्परागत ठुमरी का फिल्मी संस्करण और इसी के साथ आज के इस अंक को यहीं विराम देने की हमें अनुमति दीजिए।
अब आप ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ परिवार की सदस्य संज्ञा टण्डन की आवाज़ में ‘स्वरगोष्ठी’ के इस पूरे अंक के आलेख और संगीत को श्रव्य माध्यम में सुनिए और हमें आज के इस अंक को यहीं विराम देने की अनुमति दीजिए। आपको हमारा यह प्रयोग कैसा लगा, हमें अवश्य बताइए।
1 – ठुमरी गायन की इस रचना का अंश सुन कर बताइए कि यह रचना किस राग में निबद्ध है?
मित्रों, ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’
के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी है हमारी नई लघु श्रृंखला
‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’। इस श्रृंखला में हमने एक
नया प्रयोग किया है। ‘स्वरगोष्ठी’ के परम्परागत आलेख, चित्र और गीत-संगीत
के आडियो रूप के साथ-साथ सम्पूर्ण आलेख, गीतों के साथ श्रव्य माध्यम से भी
प्रस्तुत किया जा रहा है। आपको हमारा यह प्रयोग कैसा लगा? हमें अवश्य
लिखिएगा। आगामी अंक में हम एक और परम्परागत ठुमरी और उसके फिल्मी रूप पर
चर्चा करेंगे। आप भी अपनी पसन्द के विषय और गीत-संगीत की फरमाइश हमें भेज
सकते हैं। हमारी अगली श्रृंखलाओं के लिए आप किसी नए विषय का सुझाव भी दे
सकते हैं। अगले रविवार को प्रातः 9 बजे ‘स्वरगोष्ठी’ के इसी मंच पर सभी
संगीतानुरागियों की हम प्रतीक्षा करेंगे।
आलेख व प्रस्तुति – कृष्णमोहन मिश्र