‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! दोस्तों, हम रोज़ाना रेडियो पर, टीवी पर, कम्प्युटर पर, और न जाने कहाँ-कहाँ, जाने कितने ही गीत सुनते हैं, और गुनगुनाते हैं। ये फ़िल्मी नग़में हमारे साथी हैं सुख-दुख के, त्योहारों के, शादी और अन्य अवसरों के, जो हमारी ज़िन्दगियों से कुछ ऐसे जुड़े हैं कि इनके बिना हमारी ज़िन्दगी बड़ी ही सूनी और बेरंग होती। पर ऐसे कितने गीत होंगे जिनके बनने की कहानियों से, उनसे जुड़ी दिलचस्प क़िस्सों से आप अवगत होंगे? बहुत कम, है न? कुछ जाने-पहचाने, और कुछ कमसुने फ़िल्मी गीतों की रचना प्रक्रिया, उनसे जुड़ी दिलचस्प बातें, और कभी-कभी तो आश्चर्य में डाल देने वाले तथ्यों की जानकारियों को समेटता है ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ का यह स्तम्भ ‘एक गीत सौ कहानियाँ’। इसकी 35-वीं कड़ी में आज जानिये फ़िल्म ‘बन्दिनी’ के गीत “मोरा गोरा अंग लइ ले…” के बारे में।
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गुलज़ार |
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बिमल राय |
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7 comments
"क्योंकि गुलज़ार को गीत लेखन में कोई रुचि नहीं थी और न ही वो फ़िल्मों के लिए कुछ लिखना चाहते थे, इसलिए उन्होंने शैलेन्द्र जी को मना कर दिया।" माफ़ी चाहूंगा, ये पंक्ति गुलज़ार के उस दावे की पुष्टि करती सी प्रतीत होती है जो वो अक्सर करते हैं कि उनका पहला गीत "मोरा गोरा अंग…" था…फ़िल्म बन्दिनी साल 1963 में बनी थी…गुलज़ार साहब क्यों नहीं स्वीकारते कि वो 1960 में तीन फ़िल्मों 'दिलेर हसीना'(3 गीत), 'चोरों की बारात' (1 गीत) और 'श्रीमान सत्यवादी'(4 गीत) में गुलज़ार 'दीनवी' के नाम से लिख चुके थे…कृपया गौर करें, वो मूल रूप से पाकिस्तान के 'दीना' के रहने वाले हैं…गुलज़ार ही गुलज़ार 'दीनवी' थे, इस बात की पुष्टि फ़िल्म 'चोरों की बारात' के एक अन्य गीतकार 'नक़्श लायलपुरी' भी करते हैं… और फिर 1961 में बनी काबुलीवाला का गीत 'गंगा आए कहां से…'? उस गीत को भी गुलज़ार भुला देते हैं? क्या सिर्फ़ इसलिए कि बिमल राय उस दौर का एक बहुत बड़ा नाम थे?
bahut achchhi jaankaari Shishir ji. Thank You.
Regards
Sujoy
"mora gora ang leile" gana poorn roop se gulzar ka likha geet nahin hai.
ye gana actually mein kavi shailendra ji ne hi likha tha… huwa un ki gulzar ji shailendra ji ke shagird they, vivad hone par shailendra ke sath-2 gayak mukesh ji ne ye film chhod di thi. usi beech gulzaar ko shailendra ne bataya ki bandini ke liye ek gana sachin da record karna chahate hain, dhun taiyaar hai, jao tumhein shayad mil jaye, aap ko hairaani hogi ye jaan kar ki jab gulzar ne apni likhii song dada ko dikhaa to sachin da ne use phad diya aur salah diya ki aainda se kabhi filmi dunia mein geet likhane ki galati na karein…frustrated gulzaar ji jab ye sab shailendra ji ko bataya to shailendra ji ne unko ek geet likh ke diya aur kaha, ab jao aur dada ko dikhao…
exactly ye waisa hi likha gana tha, jaise sachin da chahate they, actually shailendra ji ne ye gana pahale hi likh rahe they, vivad hone ke baad beech mein chhod dia tha…
aur haan is geet ke shabd chayan awam bhasha shailee par dhyaan dein to aapko bilkul yakin ho jayega ki ye to shailendra branded hai. us samay bhojpuri geet likhane mein mahir the kavi shailendra ji!!!!
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कुछ समय पहले शैलेन्द्र जी की बेटी ने उनकी हस्तलिपि में लिखे इस गीत की तस्वीर फ़ेसबुक पर पोस्ट की थी, हालांकि जहां तक मुझे याद है, उस समय ऐसा कुछ ज़िक्र हुआ था कि इस गीत का मुखड़ा शैलेन्द्र जी का था और अंतरे गुलज़ार ने लिखे थे…ऐसी कुछ "अस्पष्टताओं" के कारण ही मैंने पिछली टिप्पणी में ये बात नहीं लिखी थी…नक़्श लायलपुरी साहब द्वारा गुलज़ार/गुलज़ार दीनवी के सम्बन्ध में कही गयी बातों के वीडियो को पाठक ब्लॉग 'बीते हुए दिन' में बहुत जल्द प्रकाशित होने जा रहे नक़्श साहब के साक्षात्कार के साथ देख पाएंगे…
पंकज मुकेश जी की बात से कुछ हद तक सहमत हूँ, गीत का मुखड़ा हो सकता है कि शैलेन्द्र जी ने लिखा हो, पर अंतरे गुलज़ार मार्का ही है. बाकी ये बात हैरान करती है कि "गंगा आये कहाँ से" कोप क्यों नहीं गुलज़ार साहब अपने पहले पहल गीतों में क्यों नहीं मानते…:)
गुलज़ार साहब के इन गीतों को अपना न मानने की जो वजह मुझे समझ आती है, वो ये कि 'चोरों की बारात' और 'दिलेर हसीना' सी ग्रेड स्टण्ट फ़िल्में थीं…'श्रीमान सत्यवादी' के नायक राज कपूर ज़रूर थे लेकिन उस फिल्म के साथ भी 'गुलज़ार दीनवी' का ही नाम जुड़ा हुआ था…अगर गुलज़ार इस फ़िल्म को अपना कहें तो 'गुलज़ार दीनवी' के नाम से की हुई उपरोक्त दोनों स्टण्ट फ़िल्मों से वो पल्ला कैसे छुड़ा पाएंगे? दरअसल बेचारी 'श्रीमान सत्यवादी' महज़ 'दीनवी' लफ़्ज़ की भेंट चढ़ गयी…रहा सवाल 'काबुलीवाला' का, तो 'बंदिनी' की तरह वो फ़िल्म भी बिमल राय के बैनर की थी…इसलिए 'काबुलीवाला' के मुक़ाबले 'बन्दिनी' को ज़्यादा तवज्जो देने की वजह गुलज़ार ही बेहतर बता सकते हैं…हालांकि हो सकता है कि 'बन्दिनी' का निर्माण पहले शुरू हुआ हो और 'मोरा गोरा अंग' 'गंगा आए कहां से' से पहले लिखा गया हो…लेकिन ये मात्र अटकल ही है!!!