संगीत वाद्य परिचय श्रृंखला – 8


‘संगीत वाद्य परिचय श्रृंखला’ की आठवीं कड़ी के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र,
अपने साथी स्तम्भकार सुमित चक्रवर्ती के साथ सभी संगीत-प्रेमियों का
हार्दिक स्वागत करता हूँ। मित्रों, इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय
संगीत के कुछ कम प्रचलित, लुप्तप्राय अथवा अनूठे संगीत वाद्यों की चर्चा कर
रहे हैं। वर्तमान में शास्त्रीय या लोकमंचों पर प्रचलित अनेक वाद्य हैं जो
प्राचीन वैदिक परम्परा से जुड़े हैं और समय के साथ क्रमशः विकसित होकर
हमारे सम्मुख आज भी उपस्थित हैं। कुछ ऐसे भी वाद्य हैं जिनकी उपयोगिता तो
है किन्तु धीरे-धीरे अब ये लुप्तप्राय हो रहे हैं। इस श्रृंखला में हम कुछ
लुप्तप्राय और कुछ प्राचीन वाद्यों के परिवर्तित व संशोधित स्वरूप में
प्रचलित वाद्यों का भी उल्लेख कर रहे हैं। वाद्य परिचय श्रृंखला की आज यह
समापन कड़ी है और आज की इस कड़ी में हम आपसे एक ऐसे गज-तंत्र-वाद्य की चर्चा
करेंगे जो सम्भवतः सबसे प्राचीन तंत्रवाद्य है। इस बहुउपयोगी वाद्य का
प्रचलन क्रमशः कम होता जा रहा है, किन्तु लोक और शास्त्रीय, दोनों मंचों पर
आज भी इसे देखा जा सकता है। ‘स्वरगोष्ठी’ के आज के अंक में हमारे साथी
सुमित चक्रवर्ती सारंगी के दो लोक स्वरूप पर चर्चा कर रहे हैं।
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लाखा खाँ (सारंगी) और दाने खाँ (ढोलक) |
पश्चिमी राजस्थान में एक कहावत प्रचलित है- ‘ताल मिले तो पगाँ रा घुँघरू बाजे’, अर्थात ‘संगीत में यदि सधी हुई ताल की संगति मिल जाए तो पैरों के घुँघरू स्वतः बज उठते हैं’। राजस्थानी लोक संस्कृति में लोकवाद्यों का काफ़ी प्रभाव रहा है। प्रदेश के विभिन्न अंचलों में वहाँ की संस्कृति के अनुकूल स्थानीय लोकवाद्य खूब रचे-बसे हैं। जिस क्षेत्र में स्थानीय वाद्यों को फलने-फूलने का अवसर मिला, उन वाद्यों की धूम देश के कोने-कोने से लेकर विदेशों तक मची है। ऐसा ही एक राजस्थानी लोक-तंत्र-वाद्य ‘सारंगी’ है। सारंगी शब्द ‘सौ’ और ‘रंग’ शब्दों से मिलकर बना है जिसका अर्थ है सौ रंगों को बिखेरने वाला वाद्य। ऐसा नाम शायद इसे इसलिए मिला कि मानव के गले की प्रायः सभी हरकतों के अनुकरण का गुण इस वाद्य में मौजूद है। सारंगी प्राचीन काल में घुमक्कड़ जातियों का वाद्य रहा है। मध्यकाल में जब गायन, वादन और नर्तन को राजदरबारों का संरक्षण मिला तो यह गायन और नृत्य का प्रमुख संगति वाद्य बना। शास्त्रीय संगीत में प्रतिष्ठित होने के बावजूद सारंगी का लोक स्वरूप फलता-फूलता रहा। इसका प्राचीन नाम ‘सारिन्दा’ था जो कालान्तर के साथ ‘सारंगी’ हुआ। राजस्थान में सारंगी के विविध रूप दिखाई देते हैं। मिरासी, लंगा, जोगी, माँगणियार आदि जाति के कलाकारों द्वारा बजाया जाने वाला यह वाद्य गायन तथा नृत्य की संगति की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। संगति वाद्य के अलावा यह स्वतंत्र वाद्य के रूप में बजाया जाता है। पश्चिमी राजस्थान क्षेत्र की लंगा जाति का यह प्रमुख वाद्य है इनकी सारंगी को सिन्धी सारंगी कहा जाता है। आइए, अब हम आपको इस सारंगी का रसास्वादन कराते हैं। लंगा सारंगी वादकों में एक प्रमुख नाम लाखा खाँ का है। इनकी सारंगी को ‘लोदी’ कहा जाता है। लाखा खाँ का लोदी वादन देश-विदेश में प्रसिद्ध है। अब आप लाखा खाँ का सारंगी वादन सुनिए। ढोलक संगति उनके पुत्र दाने खाँ ने की है।
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श्याम नेपाली |
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भरत नेपाली |
विभिन्न क्षेत्रों की लोक सारंगी भी कई प्रकार की होती है। थार क्षेत्र में ही दो अलग-अलग आकार-प्रकार की सारंगी होती है। इनमें सिन्धी सारंगी और गुजराती सारंगी अधिक लोकप्रिय है। सिन्धी सारंगी आकार में बड़ी होती है। इसे जैसलमेर और बाड़मेर ज़िले के लंगा माँगणियार द्वारा बजाया जाता है। गुजराती सारंगी, सिन्धी सारंगी से आकार में छोटी होती है। सारंगी का निर्माण शीशम और रोहिडे की लकड़ी से होता है। इसका निचला हिस्सा जिसे कुंडी कहा जाता है, बकरे की खाल से मढ़ा जाता है। इसके पेंदे के ऊपरी भाग में सींग की बनी घोड़ी होती है। घोड़ी के छेदों में से तार निकालकर किनारे पर लगे चौथे में उन्हें बाँध दिया जाता है। इस वाद्य में 29 तार होते हैं तथा मुख्य बाज में चार तार होते हैं जिनमें से दो तार स्टील के व दो तार ताँत के होते हैं। ताँत के तार को ‘राँदा’ कहते हैं। बाज के तारों के अलावा झोरे के आठ तथा झीले के 17 तार होते हैं। बाज के तारों पर गज, की रगड़ से सुर निकलते हैं। सारंगी के ऊपर लगी खूँटियों को झीले कहा जाता है। पैंदे में बाज के तारों के नीचे घोड़ी में आठ छेद होते हैं। इनमें से झारों के तार निकलते हैं। एक प्रतीकात्मक समस्वरित सारंगी की आवाज़ किसी मधुमक्खी के छत्ते से आती भनभनाहट जैसी होती है। सारंगी वाद्य बजाने में राजस्थान की सबसे पारंगत जाति है, सारंगिया लंगा।
आज के अंक में हमने संगीत वाद्य परिचय श्रृंखला के अन्तर्गत सारंगी वाद्य
के लोक स्वरूप के बारे में चर्चा की। भारतीय संगीत वाद्यों पर इस लघु
श्रृंखला को अब हम यहीं विराम देते हैं। भविष्य में इस प्रकार की श्रृंखला
हम पुनः प्रस्तुत करेंगे। अगले अंक में हम आपका परिचय एक ऐसे संगीत-साधक से
कराएँगे जिनका योगदान मंच प्रदर्शन से कहीं अधिक भारतीय संगीत के प्रचारक
और विस्तारक के रूप में है। यह अंक ‘व्यक्तित्व’ श्रृंखला के अन्तर्गत
प्रस्तुत किया जाएगा। आप भी अपनी पसन्द के विषय और गीत-संगीत की फरमाइश
हमें भेज सकते हैं। हमारी अगली श्रृंखलाओं के लिए आप किसी नए विषय का सुझाव
भी दे सकते हैं। अगले रविवार को प्रातः 9 बजे ‘स्वरगोष्ठी’ के इसी मंच पर
सभी संगीतानुरागियों की प्रतीक्षा करेंगे।
प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र