Dil se Singer

खुशबू उड़ाके लाई है गेशु-ए-यार की.. अपने मियाँ आग़ा कश्मीरी के बोलों में रंग भरा मुख्तार बेग़म ने

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७०

मने अपनी महफ़िल में इस मुद्दे को कई बार उठाया है कि ज्यादातर शायर अपनी काबिलियत के बावजूद पर्दे के पीछे हीं रह जाते हैं। सारी की सारी मक़बूलियत इन नगमानिगारों के शेरों को, उनकी गज़लों को अपनी आवाज़ से मक़बूल करने वाले फ़नकारों के हिस्से में जाती है। लेकिन आज की महफ़िल में स्थिति कुछ अलग है। हम आज एक ऐसी फ़नकारा की बात करने जा रहे हैं जिनकी बदौलत एक अव्वल दर्ज़े की गायिका और एक अव्वल दर्ज़े की नायिका हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी अवाम को नसीब हुई। इस अव्वल दर्ज़े की गायिका से हम सारे परिचित हैं। हमने कुछ महिनों पहले इनकी दो नज़्में आपके सामने पेश की थीं। ये नज़्में थीं- जनाब अतर नफ़ीस की लिखी “वो इश्क़ जो हमसे रूठ गया” और जनाब फ़ैयाज हाशमी की “आज जाने की जिद्द न करो”। आप अब तक समझ हीं गए होंगे कि हम किन फ़नकारा की बातें कर रहे हैं। वह फ़नकारा जिनकी गज़ल से आज की महफ़िल सजी है,वो इन्हीं जानीमानी फ़नकारा की बड़ी बहन हैं। तो दोस्तों छोटी बहन का नाम है- “फ़रीदा खानुम” और बड़ी बहन यानि की आज की फ़नकारा का नाम है “मुख्तार बेग़म”। मुख्तार बेग़म यूँ तो उतना नाम नहीं कमा सकीं, जितना नाम फ़रीदा का हुआ, लेकिन फ़रीदा को फ़रीदा बनाने में इनका बड़ा हीं हाथ था। फ़रीदा जब महज सात साल की थीं तभी उन्होंने अपनी बड़ी बहन मुख्तार बेग़म से “खयाल” सीखना शुरू कर दिया था। अब यह तो सभी जानते हैं कि फ़रीदा के गायन में “खयाल” का क्या स्थान है। इतना हीं नहीं.. ऐसी कई सारी गज़लें(जैसे कि आज की गज़ल हीं) और नज़्में हैं जिन्हें पहले मुख्तार बेग़म ने गाकर एक रास्ते की तामीर की और बाद में उसी रास्ते पर और उस रास्ते पर बने इनके पद-चिह्नों पर चलकर फ़रीदा खानुम ने गायिकी के नए आयाम स्थापित किए। यह अलग बात है कि आज के संगीत-रसिकों को इनके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं ,लेकिन एक दौर था(१९३० और ४० के दशक में) जब इनकी गिनती चोटी के फ़नकारों में की जाती थी। मेहदी हसन साहब ने जिस वक्त गाना शुरू किया था, उस वक्त बेग़म अख्तर, उस्ताद बरकत अली खान और मुख़्तार बेग़म गज़ल-गायिकी के तीन स्तंभ माने जाते थे। इस बात से आप मुख्तार बेग़म की प्रतिभा का अंदाजा लगा सकते हैं। चलिए लगे हाथों हम मुख्तार बेग़म का एक छोटा-सा परिचय दिए देते हैं।

लोग इन्हें बस एक गायिका के तौर पर जानते हैं, लेकिन ये बँटवारे के पहले हिन्दुस्तानी फिल्मों की एक जानीमानी अभिनेत्री हुआ करती थीं। इन्होंने ३० और ४० के दशक में कई सारी फिल्मों में काम किया था, जिनमें “हठीली दुल्हन”, “इन्द्र सभा”, “हिन्दुस्तान” , “कृष्णकांत की वसीयत”, “मुफ़लिस आशिक़”, “आँख का नशा”, “औरत का प्यार”, “रामायण”, “दिल की प्यास” और “मतवाली मीरा” प्रमुख हैं। १९४७ में पाकिस्तान चले जाने के बाद इन्होंने किसी भी फिल्म में काम नहीं किया, लेकिन ये गज़ल-गायिकी करती रहीं।

अभी हमने गायिका(फ़रीदा खानुम) की बात की, अब वक्त है उस नायिका की, जिसे लोग “रानी मुख्तार” के नाम से जानते हैं और वो इसलिए क्योंकि उस नायिका को नासिरा से रानी इन्होंने हीं बनाया था। नासिरा का जन्म इक़बाल बेग़म की कोख से ८ दिसम्बर १९४६ को लाहौर में हुआ था। नासिरा के अब्बाजान मुख्तार बेग़म के यहाँ ड्राईवर थे। अब चूँकि नासिरा के घर वाले उसका लालन-पालन करने में सक्षम नहीं थे इसलिए मुख्तार बेग़म ने उसे गोद ले लिया। मुख्तार बेग़म चाहती थीं कि नासिरा उन्हीं की तरह एक गायिका बने लेकिन नासिरा गायन से ज्यादा नृत्य की शौकीन थी। और इसलिए इन्होंने नासिरा को उस्ताद गु़लाम हुसैन और उस्ताद खुर्शीद से नृत्य की शिक्षा दिलवाई। एक दिन जब जानेमाने निर्देशक “अनवर कमाल पाशा” मुख्तार बेग़म के घर अपनी अगली फिल्म “सूरजमुखी” के फिल्मांकन के सिलसिले में आए तो उनकी नज़र नासिरा पर पड़ी और उन्होंने अपनी फिल्म में नासिरा से काम करवाने का निर्णय ले लिया। और इस तरह नासिरा फिल्मों में आ गईं। इस फिल्म में मुख्तार बेग़म ने गाने भी गाए थे। नासिरा को चूँकि मुख्तार बेग़म रानी बेटी कहकर पुकारती थीं, इसलिए नासिरा को रानी मुख्तार का नाम मिल गया। वैसे आपको शायद हीं यह पता हो कि जानीमानी अभिनेत्री और गायिका “नूर जहां” को यह नाम मुख्तार बेग़म ने हीं दिया था, जो कभी “अल्लाह वसई” हुआ करती थीं।

आज की फ़नकारा के बारे में ढेर सारी बातें हो गईं। अब क्यों न हम आज की गज़ल के गज़लगो से भी रूबरू हो लें। तो आज की गज़ल के गज़लगो कोई और नहीं “मुख्तार बेग़म” के पति जनाब “आग़ा हश्र कश्मीरी” हैं। “आग़ा” साहब का शुमार पारसी थियेटर के स्थापकों में किया जाता है। इन्होंने शेक्सपियर के “मर्चेंट आफ़ वेनीस” का जो उर्दू रूपांतरण किया था, वह आज भी उर्दू की एक अमूल्य कॄति के तौर पर गिनी जाती है.. और उस पुस्तक का नाम है “यहूदी की बेटी”। हमें इस बात का पक्का यकीन है कि आप इस पुस्तक से जरूर वाकिफ़ होंगे, भले हीं आप यह न जानते हों कि इसकी रचना “आग़ा” साहब ने हीं की थी। आग़ा साहब के बारे में बाकी बातें कभी अगली कड़ी में कड़ेंगे, अभी हम उनका लिखा एक शेर देख लते हैं:

वो मुक़द्दर न रहा और वो ज़माना न रहा
तुम जो बेगाने हुए, कोई यगाना न रहा।

इस शेर के बाद अब पेश है कि आज की वह गज़ल जिसके लिए हमने यह महफ़िल सजाई है। इस गज़ल को हमने “औरत का प्यार” फिल्म से लिया है, जिसका निर्देशन श्री ए० आर० करदर साहब ने किया था। यह गज़ल राग दरबारी में संगीतबद्ध की गई है। तो चलिए गज़ल की मासूमियत, गज़ल की रूमानियत के साथ-साथ इस राग की बारीकियों से भी रूबरू हो लिया जाए:

चोरी कहीं खुले ना नसीम-ए-बहार की,
खुशबू उड़ाके लाई है गेशु-ए-यार की।

गुलशन में देखकर मेरे मस्त-ए-शबाब को,
शरमाई जा रही है जवानी बहार की।

ऐ मेरे दिल के चैन मेरे दिल की रोशनी,
और सुबह कई दे शब-ए-इंतज़ार की।

जुर्रत तो देखिएगा नसीम-ए-बहार की,
ये भी बलाएँ लेने लगी जुल्फ़-ए-यार की।

ऐ ’हश्र’ देखना तो ये है चौदहवीं का चाँद,
या आसमां के हाथ में _____ यार की।

चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की… ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ….

पिछली महफिल के साथी –

पिछली महफिल का सही शब्द था “मिज़ाज” और पंक्तियाँ कुछ इस तरह थीं –

मेरी ज़िन्दगी के चिराग का, ये मिज़ाज कुछ नया नहीं
अभी रोशनी अभी तीरगी, ना जला हुआ ना बुझा हुआ

बड़े हीं मिज़ाज से “मिज़ाज” शब्द की सबसे पहले शिनाख्त शरद जी ने की। शरद जी इस बार आपके अंदाज बदले-बदले से हैं। हर बार की तरह आपका खुद का लिखा शेर किधर है। चलिए कोई बात नहीं.. मुदस्सर हुसैन साहब का यह शेर भी किसी मामले में कम नहीं है:

गए दिनों में मुहब्बत मिज़ाज उसका था
मगर कुछ और ही अन्दाज़ आज उसका था।

निर्मला जी, हौसला-आफ़जाई के लिए आपका तहे-दिल से शुक्रिया। आप अपनी ये दुआएँ इसी तरह हमपे बनाए रखिएगा।

मंजु जी, क्या बात है! भला ऐसा कौन-सा हुजूर है, जिसका मिज़ाज इतनी खुशामदों के बाद भी नहीं बन रहा। अब और कितनी मिन्नतें चाहिए उसे:

मौहब्बत का मिजाज उनका अब तक ना बन सका ,
मेरे हजूर!क्या खता है हम से कुछ तो अर्ज कर . (स्वरचित)

सुमित जी, यह क्या… बस इसी कारण से आप हमारी महफ़िल से लौट जाते थे क्योंकि आपको दिए गए शब्द पर शेर नहीं आता था। आपको पता है ना कि यहाँ पर किनका लिखा शेर डालना है, ऐसी कोई पाबंदी नहीं है। जब आप खुद कुछ लिख न पाएँ तो दूसरे का शेर हीं पेश कर दिया करें। जैसा कि आपने इस बार किया है:

कोइ हाथ भी ना मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से,
ये नये मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो।

ये रहे आपके पूछे हुए शब्दों के अर्थ:
पुख़्ताकार: निपुण
तीर ख़ता होना: तीर निशाने से चूक जाना

शन्नो जी, ऐसी क्या नाराज़गी थी कि आपने हमारी महफ़िल से मुँह हीं मोड़ लिया था। अब हम यह कितनी बार कितनों से कहें कि इस महफ़िल का जो संचालन कर रहा है (यानि कि मैं) वो खुद हीं इस लायक नहीं कि धुरंधरों के सामने टिक पाए.. फिर भी उसमें इतनी जिद्द है कि वो महफ़िल लेकर हर बार हाज़िर होता है। जब आपको किसी महफ़िल में शरीक होना हो तो इसमें कोई हानि नहीं कि आप खुद को भी एक धुरंधर मान बैठें, हाँ अगर आप किसी गज़ल की कक्षा में हैं तब आप एक शागिर्द बन सकती हैं। उम्मीद करता हूँ कि आप मेरी बात समझ गई होंगी। तो इसी खुशी में पेश है आपका यह ताज़ा-तरीन शेर:

जिन्दगी के मिजाज़ अक्सर बदलते रहते हैं
और हम उसे खुश करने में ही लगे रहते हैं.

लगता है कि पिछली महफ़िल में कही गई मेरी कुछ बातों से सीमा जी और शामिख साहब नाराज़ हो गएँ। अगर ऐसी बात है तो मैं मुआफ़ी चाहता हूँ। लौट आईये.. आप दोनों। आपके बिना यह महफ़िल अधूरी है।

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति – विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. “महफ़िल-ए-ग़ज़ल” श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक “तन्हा”. साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -“शान-ए-महफिल”. हम उम्मीद करते हैं कि “महफ़िल-ए-ग़ज़ल” का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

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11 comments

seema gupta February 11, 2010 at 3:21 am

तस्वीर
regards

Reply
seema gupta February 11, 2010 at 3:22 am

ऐ ’हश्र’ देखना तो ये है चौदहवीं का चाँद,
या आसमां के हाथ में _तस्वीर यार की।

regards

Reply
seema gupta February 11, 2010 at 3:28 am

दिल खिंच रहा है फिर उसी तस्वीर की तरफ़.
हो आयें चलिए मीर तकी मीर की तरफ़.
(ज़ैदी जाफ़र रज़ा )
तस्वीर बनाता हूँ तस्वीर नहीं बनती
एक ख़्वाब सा देखा है ताबीर नहीं बनती
(ख़ुमार बाराबंकवी )
चलती-फिरती धूप-छॉव से, चहरा बाद में बनता है,
पहले-पहले सभी ख़यालों से तस्वीर बनाते हैं।
(निदा फ़ाज़ली )
जिस की आवाज़ में सिलवट हो निगाहों में शिकन
ऐसी तस्वीर के टुकड़े नहीं जोड़ा करते
(गुलज़ार )
उस ने घबरा के नज़र लाख बचाई होगी
मिट के इक नक़्श ने सौ शक़्ल दिखाई होगी
मेज़ से जब मेरी तस्वीर हटाई होगी
हर तरफ़ मुझ को तड़पता हुआ पाया होगा
(कैफ़ी आज़मी)

regards

Reply
शरद तैलंग February 11, 2010 at 9:22 am

(स्वरचित)
मिली तस्वीर इक दिन बाप की जो उस के बेटे को
तो बोला ’आप भी डैडी कभी क्या खूब लगते थे’ ।
तथा
शीशा-ए-दिल में छुप है ओ सितमगर तेरा प्यार
जब ज़रा गर्दन झुकाई देख ली तस्वीर-ए-यार ।

Reply
shanno February 11, 2010 at 10:31 am

तन्हा जी,
मेरा हौसला बढ़ाने के लिये आपका बहुत-बहुत शुक्रिया. दर असल बात मेरे अन्दर के डर की है वह यह की….अपना उर्दू का ज्ञान solid नहीं….इसीलिए जरा dodgy हिसाब रहता है DIY शेरों का. मैंने समझा था की इस महफ़िल में आने के लिए उर्दू लजीज होनी चाहिए, है ना? और यहाँ सभी लोग एक से एक बढ़कर माहिर हैं उर्दू में. और मैं…मैं…मैं क्या कहूँ अपने बारे में….उर्दू इतनी खूबसूरत भाषा है लेकिन मुझे खुद से बड़ी निराशा है फिर भी मुझे आशा है की सुमीत जी से हिम्मत लेकर मैं भी उर्दू में कुछ पुख्ता हो जाऊँगी…..बस इंसान आशा ही कर सकता है किसी भाषा को सीखने के बारे में. और साथ में शेर लाने का जो जिम्मा दिया आपने सबको, वहाँ हिम्मत हारने लगती हूँ. शेरों से बड़ा डर लगने लगा था मुझे. फिर भी किसी तरह इनकी टाँगें तोड़ कर कुछ न कुछ घसीट देती हूँ और फिर यहाँ लाकर महफ़िल में पेश करते हुए दिल घबराता है की कोई तुनक न जाए मेरी बकबास सुनके. और जो ग़ज़ल की कक्षा-वक्षा का जिकर किया है तो उसके लिए भी अपना दिमाग कच्चा है…..पता नहीं कहाँ है इसकी कक्षा….और अपने को तो नक़ल टीपने की भी अकल नहीं है. जब दोहे की कक्षा में सीखना शुरू किया था तो दोहे की जान निकल जाती थी मेरी कलम से…अब गजल की कक्षा अगर कहीं हैं तो फिर पता नहीं जितना मेरा उर्दू का ज्ञान है उससे ग़ज़ल का क्या हाल होगा. तो कक्षा के लिए अच्छा यही समझती हूँ की इसी महफ़िल को अपनी ग़ज़ल की कक्षा समझ लूं और इससे कुछ शब्द उधार लेकर गजल लिख कर ब्याज समेत वापस कर दूं. आप समझ तो गए होंगे…..तो बस अब ऐसा ही समझना होगा. और इसी नेक ख्याल को दिमाग में रखते हुए सबके सामने अपना एक शेर लायी हूँ…..क्योंकि यह एंट्री की कंडीशन है आपकी तरफ से.

जब-जब शीशा-ए-दिल में एक तस्वीर सी उभरती है
पत्थरों का अहसास भी तभी आ जाता है ख्याल में.
-शन्नो

और आपकी सुनवाई हुई गजल का भी बहुत शुक्रिया…..सुनकर ही पता लगा की जो शब्द गायब था वह 'तस्वीर' है. तो अब चलूँ…..अगली बार फिर मिलना होगा सबसे और कुछ नये शब्द भी सीखने को मिलेंगे.

Reply
Manju Gupta February 11, 2010 at 12:41 pm

जवाब -तस्वीर
स्वरचित –
ख्यालों के रंगों से रंगी तस्वीर तेरी ,
बेकरारी से मिलन का इंतजार बाकी है .

Reply
avenindra February 12, 2010 at 4:19 am

tasveer

zara see der main jal ke raakh ho gaya ,,,,
teri tasveer ko kaleze se lagakar dekha

Reply
avenindra February 12, 2010 at 4:25 am

वो आज मुझसे मुंह मोड़ के रोई
कितनी मजबूर होगी कि दिल तोड़ कर रोई
मेरे सामने ही कर दिए मेरी तस्वीर के टुकड़े
मेरे बाद उन्ही टुकड़ों को जोड़ कर रोई
शायर अपरिचित है !

Reply
avenindra February 12, 2010 at 4:38 am

वैसे तो मुझे उर्दू का तनिक भी ज्ञान नहीं है फिर भी कोशिश रहती है सीखने कि और लिखने कि और बहुत ही सरल शब्द उठाता हूँ लिखने के लिए ताकि कम से कम गलतियाँ करूँ आपकी महफ़िल मैं ये मेरा पहला प्रयास है आपकी हौसला अफजाई कि उम्मीद रखता हूँ !यदि कोई गलती हो जाये तो मजरत चाहूँगा

स्वरचित है
ग़मों का शोर उठा है या तसव्वुर कि शाम आई
याद जब भी तेरी आई लेके अश्के -जाम आई

तेरे सामने जब भी बैठकर रोना चाहा

तेरी कसम तेरी तस्वीर बहुत काम आई
अवनींद्र

Reply
sumit February 12, 2010 at 11:44 am

tasveer

tasveer banata hoon tasveer nahi banti,ek khwab sa dhekha tha taabir nahi banti

taabir=khwab ka sach hona…

Reply
sumit February 12, 2010 at 11:50 am

ye sher to pehle he seema jee likh chuki hai….
naya sher- meri tasveer mei rang kisi aur ka to nahi, gher lete hai mujhe sab aankhe main tamasha to nahi….

tanha jee, vaise to main hamesha he kisi aur shayar ka sher likhta hoon par jab mujhe koi bhi sher yaad nahi aata tab main mehfil se ghazal sunkar laut jaata hoon

agli mehfil mein milte hai..

tab tak ke liye bye bye

aur पुख़्ताकार aur
तीर ख़ता होना ka arth batane ke liye thanks

bye bye…

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